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________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १६५ छ. जैन दर्शनमें मुक्तिका मार्ग जैन दर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों के सम्मिलित रूपको ही मोक्षका साक्षात् मार्ग कहा गया है । जीवादि सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन्हींका अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादिका परिहार सम्यग्चारित्र है। इस प्रकार जैन दर्शन ने सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी भाँति केवल मात्र ज्ञानको ही मुक्तिका साधन नहीं माना, न ही न्यायवैशेषिक और मीमांसा दर्शनोंकी भाँति ज्ञान कर्म समुच्चयको मोक्षका मार्ग माना है और भक्ति योगकी भाँति केवल समर्पण और श्रद्धाको भी मोक्षका साधन नहीं माना है, अपितु तीनोंके संयोगको ही मोक्षका कारण कहा गया है। पूर्ण निरोगकी प्राप्तिके लिए जिस प्रकार औषधिका श्रद्धान, ज्ञान व सेवन रूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार समस्त कर्ममलसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र तीनोंकी ही आवश्यकता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक्ज्ञान सहित, चारित्र ही मोक्षका साध न होता है, ज्ञान और श्रद्धानसे रहित नहीं। तीनोंको ही रत्नत्रय कहा गया है, क्योंकि इनके द्वारा आत्माको अनादिकालीन कर्मबद्धतासे मुक्ति प्राप्त होती है। अमृतचन्द्राचार्यने रत्नत्रयको साक्षात् निवार्णका हेतु कहा है | मोक्षमार्गका पुरूषार्थी जीव ज्यों-ज्यों रत्नत्रयकी पूर्णताकी ओर बढता जाता है, उसके कर्मबन्धन ढीले पड़ते जाते हैं। रत्नत्रयका पालन संवर और निर्जरा युक्त साधनाके द्वारा ही होता है। ३. कर्म प्रवाहको रोकनेका उपाय संवर परिचय जीवको बन्धनमें डालनेवाले कर्माणुओंके प्रवाहका रूक जाना ही संवर है । १. अत: सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमितिएतत्रितय समुदितमोक्षस्यसाक्षान्मार्गोवेदितव्यः । सर्वार्थसिद्धि, पृ०७ २. जीवादीसदहणं सम्मतं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं चरण एसो दुमोक्खपहो। समयसार, गाथा १५५ ३. राजवार्तिक, पृ०१४ ४. यत: क्रिया, ज्ञान श्रद्धारहिता नि:फलेति, यतो मोक्षमार्ग त्रितयो कल्पना ज्यायसीति, राजवार्तिक, पृ० १४ । ५. तिण्डंपिय संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो, मूलाचार गाथा ८९९ ६. आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव, पुरूषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ३० ७. रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य, वही, श्लोक २२० ८. पुरूषार्थसिद्धयुपाय: श्लोक २१२.२१४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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