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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन उमास्वामीने संवरका लक्षण करते हुए कहा है - "आश्रव निरोध: संवर: अर्थात् जिस निमित्तसे कर्म का आगमन होता है, उस निमित्तका प्रतिरोध हो जाना ही संवर है । बन्ध प्रकरणमें पहले ही निर्दिष्ट किया जा चुका है कि मिथ्यात्व. अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बन्धके मुख्य कारण हैं। इसके विपरीत सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और योगोंकी निवृत्ति, ये नवीन कर्मों के निरोधके हेतु होनेसे संवर कहे जाते हैं। मोक्षमार्गके विकासका क्रम संवरसे ही प्रारम्भ होता है। जैसे-जैसे आश्रव निरोध होता जाता है वैसे-वैसे ही गुणस्थानकी भी वृद्धि होती जाती है । गुणस्थान मोक्षमार्गके सोपान हैं, जिनका वर्णन अग्रिम अध्यायमें किया जाना है।
संवरके भेद
संवरके दो भेद कहे गये हैं – भाव संवर और द्रव्य संवर | जीवके साथ संश्लेष संबंधको प्राप्त - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि आत्माके स्वगुण नहीं हैं, इसी कारण इन्हें आत्मासे पृथक् किया जा सकता है । सम्यक्बोधके द्वारा ही मिथ्यात्वादिको दूर किया जा सकता है। सम्यक्बोधके परिणाम स्वरूप अज्ञान जनित अवस्था का क्षीण होना भाव संवर है और अज्ञान जनित अवस्थाके क्षीण होनेसे कर्मपुद्गलोंका ग्रहण न होना द्रव्य संवर है ।
संवरके साधन
कर्म प्रवाहको रोकनेके मुख्य सात साधन कहे गये हैं। परन्तु उनके उत्तरभेदोंकी गणना करने पर कुल बासठ भेद हो जाते हैं, जो अग्र तालिका द्वारा निर्दिष्ट किये जा सकते हैं -
१. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ९, सूत्र १ २. पूर्व निर्दिष्ट कर्म बन्धके कारण। ३. संसार निमित्तक क्रियानिवृत्तिर्भाव संवर, तन्निरोधे तत्पूर्वक कर्म पुद्गलादान विच्छेदो द्रव्य संवरः ।
सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०६ ४. (क.) वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओज।
चारित्तं बहु भेया णायव्वा भाव संवर विसेसा। द्रव्यसंग्रह, गाथा ३५
(ख.) स गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षा परिषह जय चारित्रैः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९ सूत्र २ ५. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र ४.९, १८
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