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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन देशरूपसे आत्मगुणोंका आच्छादन करने वाली कर्म प्रकृतियोंको देशघाती कहते हैं।' केवलज्ञानावारण, दर्शनावरणषट्क - (पांचनिद्रा और केवलदर्शनावरण) मोहनीयकी बारह - (अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क) और मिश्र व मिथ्यात्व ये इक्कीस प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। सम्यग्मिथ्यात्व अबन्ध प्रकृति है। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पांच अन्तराय, सम्यकत्व, संज्वलन चतुष्क और नो नोकषाय ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं।'
. इसी प्रकार शेष चार कर्म वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र में जीवके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यादि गुणोंका विनाश करने की शक्ति नहीं पायी जाती। इसलिए ये कर्म अघातिया कर्म कहलाते हैं । जीव विपाकी नाम और वेदनीय कर्मोको घातिया नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनका कार्य अनात्मभूत सुभग, दुर्भग आदि जीव पर्यायोंको उत्पन्न करना है, इनमें जीवके गुणोंका विनाश करने की शक्ति नहीं होती।' वेदनीय कर्म रति और अरति मोहनीय कर्म के साथ ही जीवके गुणोंको घातता है, इस कारण इसे घातियामें मोहनीयसे पहले गिना है। यह स्वयं अघातिया है परन्तु मोहनीयके संयोगसे घातियावत् कार्य करता है।६ इसी प्रकार अन्तराय कर्मको यद्यपि घातियाकर्म अनुभागमें ही गिना है, परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मके निमित्त से ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियाके पीछे अन्तमें अन्तराय कर्म कहा है । अन्तरायकर्मका नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाशका अविनाभावी है और अन्तराय कर्मका नाश हो जाने पर अघातिया कर्म भुने हुए बीजके समान नि:शक्त हो जाते हैं । घातिया अघातिया कर्म प्रकृतियों को अग्रिम तालिकामें निर्दिष्ट किया गया है
१. “सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिका:कर्मशक्तय:सर्वघातिस्पर्द्धकानिमण्यन्ते, विवक्षितेकदेशेन आत्मगुण
प्रच्छादिका: शकतय: देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते वृहद्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३४ २. केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोह बारसयं ।
तासव्वघाइसण्णा मिस्सं मिच्छत्तमेयवीसदिमं । पंचसंग्रह प्राकृत गाथा, ४८३ ३. णाणावरणचउक्कं दसणतिगमंतराइगे पंच।
तं होंति देशघाई सम्म संजलण णोकसाया य |पंचसंग्रह प्राकृत, गाया ४८४ ४. “जीव गुणविणाससत्तीए अभावा" षट्खण्डागम धवला ७/२, पृ० ६२ ५. “जीक्गुणविणासयत्ततविरहादो” वही, पृ० ६३ ६. घादिव वेयणीर्य मोहस्स वलेण घाददे जीवं” गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १९ ७. शेष घातित्रितयविनाशाविनाभाविनो
भ्रष्टबीजवन्निशक्तिकृताघातिकर्मणी.....१, षट्खण्डागम, धवला १/१ पृ०४४
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