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कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
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कारण इसे देशघाती कहा जाता है और अधिक शक्ति वाला अनुभाग पूर्ण रूपेण
का घात करता है, इसी कारण उसे सर्वघाती कहा जाता है । पाप प्रकृतियों का अनुभाग पाप अथवा अशुभ ही होता है और पुण्य प्रकृतियोंका अनुभागं पुण्य अथवा शुभ ही होता है ।
प्रकृतियोंमें अनुभाग बन्ध
ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों की मूल सैंतालीस प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध संक्लेश परिणामोंकी तरतमताके आधार पर किया जा सकता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रकृतियोंकी तरतमावस्था को लता, दारू, अस्थि और शैलके उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है ।" अनुभागकी अधिकता उत्तरोत्तर घातकी अधिकताकी सूचक है । लता और दारूका दृष्टान्त अल्प अथवा देशघाती प्रकृतियों का सूचक है। अस्थि और शैलका दृष्टान्त सर्वघाती प्रकृति का सूचक है । सर्वघाती प्रकृतियाँ आत्मशक्तिके एक भी अंशको प्रगट नहीं होने देती । घातिया - अघातिया कर्म निर्देश
अनुभागकी दृष्टिसे मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का दो रूपों में विभाजन किया गया है - घातिया कर्म और अघातिया कर्म । जीव के अन्तरंग भाव मुख्यत: चार कोटियों में विभाजित किये जा सकते हैं - ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, ३ इन चारों भावोंके विकृत अथवा आच्छादित करने वाले घातिया कर्म भी उनके अनुरूप ही चार प्रकारके होते हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । १ ज्ञानको आच्छादित करने वाली प्रकृति ज्ञानावरणीय, दर्शनको आच्छादित करने वाली प्रकृति दर्शनावरणीय, मनको विकृत करने वाली प्रकृति मोहनीय और विघ्नकी कारणभूता अन्तराय नामकी प्रकृति है ।
घातिया कर्म प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की हैं - सर्वघाती प्रकृतियाँ और देशघाती प्रकृतियाँ ।" अपनेसे प्रतिबद्ध जीवके गुणों को पूरी तरहसे घातने का जिस अनुभागका स्वभाव है, उस अनुभागको सर्वघाती कहते हैं और विवक्षित एक
१. सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवया हु घादीणं ।
दारूअणंतिम भागोत्ति देसघादी तदो सव्वं ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १८० २. ताण पुणघादित्ति अघादित्ति य होंति सण्णाओ, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७ ३. पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय दो ।
४. तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या: घातिका । राजवार्तिक, पृ० ५८४ ५. “घातिकाश्चापि द्विविधाः सर्वघातिका: देशघातिकाश्च राजवार्तिक, पृ० ५८४
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