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________________ १५० ३. अनुभाग बन्ध विविध कर्मों के पाक अर्थात् फल देनेकी शक्तिको अनुभव या अनुभाग कहते हैं । अनुभाग बन्धकी परिभाषा करते हुए उमास्वामी ने कहा है “विपाकोऽनुभव: "" अनुभाग बन्ध कर्मों के नामके अनुसार ही होता है। उमास्वामीने सूत्रमें कहा है “ स यथानाम" २ अर्थात् ज्ञानावरणी कर्मका फल ज्ञानके अभावको अनुभव करना, दर्शनावरणी कर्मका फल दर्शनके अभावको अनुभव करना और वेदनीय कर्म का फल साता अथवा असाताको अनुभव करना है । इसी प्रकार अन्य सभी कर्मोंका फल उसके नामके अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । यह अनुभाग बन्ध कषायों की तीव्रता मन्दता और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके अनुसार अनेक प्रकारका होता है । शुभकर्मों में अनुभाग सुख रूप और अशुभ कर्मों में अनुभाग दुःख रूप होता है । बकरी गाय और भैंसके दूधमें जिस प्रकार पृथक् पृथक् तीव्र मन्दादि माधुर्य विशेष होता है, उसी प्रकार कर्मपुद्गलों में अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही अनुभव अथवा अनुभाग होता है ।' जीवके भावों के अनुसार ही फलदान शक्तिमें तरतमता होती है। जैसे उबलते हुए तेलकी एक बूंद शरीरको जला डालती है, परन्तु कम गर्म मन भर तेल भी शरीरको जलाने में समर्थ नहीं है, इसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोड़ेसे कर्म जीवके गुणों का घात करने में समर्थ होते हैं, परन्तु अल्प अनुभाग युक्त अधिक कर्म भी जीवके गुणों का घात करनेमें समर्थ नहीं होते। इसी कारण कर्मवन्धर्मो अनुभागकी ही प्रधानता है । कर्म प्रदेशों के अधिक होने पर यह आवश्यक नहीं कि कर्म के अनुभागमें भी वृद्धि हो क्योंकि अनुभाग बन्ध कषायसे होता है । I जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन श्रीमती स्टीवनसनने कर्मशक्तिकी मन्दता और तीव्रता को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट चित्रित किया है - दो लड़कों की गेंद गायपर लग जाती है। एक लड़का गेंद लगने पर बहुत पछताता है और दूसरा गौरवका अनुभव करता है । पछताने वाले लड़के के कर्मका अनुभाग मन्द होगा और दूसरेका तीव्र अनुभाग होगा । " शक्ति वाला अनुभाग एक देश रूपसे गुणोंका घात करता है, इसी १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २१ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २२ ३. तेषामेव दुग्धानां तारतमयेन रसगतशक्तिविशेषोऽनुभागो भव्यते तथा जीवप्रदेशस्थित कर्म स्कन्धानामपि सुखदु:खदान समर्थ शक्ति विशेषोऽनुभागबन्धो विज्ञेयः " द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ ४. षट्खण्डागम धवला १२/४, पृ० ११५ ५. हर्ट ऑफ जैनिजम, पृ० १६२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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