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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन श्रेय केवल जैन दर्शन को ही प्राप्त है, अन्य दर्शनों में इस प्रकार से कर्मों का विश्लेषणात्मक परिचय प्राप्त नहीं होता। अर्यकर्ता तथा ग्रन्यकर्ता यह निर्विवाद है कि मानव मनीषा तथा संस्कारों के अनुसार इस भूमंडल पर सदा से दो विचार धारायें साथ-साथ चलती रही हैं - एक भौतिक और दूसरी पारमार्थिक । भौतिक संस्कृति जहाँ वैषयिक भोग के द्वारा जीवन को सुखमय बनाने के प्रति.लालायित करती है, वहाँ ही पारमार्थिक संस्कृति उसे वैषयिक भोग के त्याग द्वारा जीवन में आत्मानन्द की प्राप्ति कराती है । भौतिकता का आलम्बन बाह्म विषय है इसलिए यह परतन्त्र है, ज्ञान मात्र में अवलम्बित होने के कारण पारमार्थिक संस्कृति स्वतन्त्र है। यद्यपि सारा विश्व अधिकांशत: भौतिक संस्कृति का उपासक रहा है परन्तु इस भूखण्ड का एक छोटा सा भाग ऐसा भी है जो केवल पारमार्थिक संस्कृति पर विशास करता है। वह है भारतवर्ष, इसकी पावनधरा पर सदा से तत्त्वदृष्टा ऋषि तथा महर्षि उत्पन्न होते रहते हैं, जिनके कारण यह ऋषि भूमि के नाम से प्रसिद्ध है । ऋषियों की अविच्छिन्न धारा में जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् उनकी भाषा अत्यन्त मधुर, मनोहर, गंभीर, विशद, हृदय स्पर्शी तथा अतिशय युक्त हो जाती है, जिससे तिर्यञ्च, देव, मनुष्य अपनी-अपनी भाषा में उसे ग्रहण कर लेते हैं, यही उनकी वाणी का अतिशय होता है। अनेकों भाषाओं को अपने में धारण किये रहने के कारण उनकी वाणी को "दिव्य ध्वनि" कहा जाता है। इस प्रकार भाषा की चिन्ता छोड़कर अपनी अतिशय युक्त वाणी से हृदय में स्थित अर्थ या भाव को जनगण मन तक पहुंचाने के कारण भगवान महावीर अर्थकर्ता कहलाते भगवान महावीर की वाणी के द्वारा अभिव्यक्त होने वाले अर्थ को उनके प्रधान शिष्य (गणधर) आचार्य इन्द्रभूति ने सूत्रों में बद्धकर दिया। वह सूत्रबद्ध साहित्य ही ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के रूप में व्यवस्थित है। इस प्रकार १. तिर्यग्देव मनुष्य भाषाकार....अति मनोहर मधुर, गंभीर, विशद वातिशय सम्पन्न... षटखण्डागम, धवलाटीका, पुस्तक १ खण्ड १ सूत्र, पृ०६१ (अमरावती प्रकाशिनी संस्था) २. संखेनगुणमासास....विणिग्गयन्झुणि । धवला टीका, पुस्तक ९, खण्ड ,सूत्र ९, पृ०६२ ३. महावीरोऽर्थकर्ता-धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १. सूत्र १, पृ०६१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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