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पृष्ठ भूमि
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कारण यह है कि अन्य दर्शनों में तात्त्विक विवेचना पर ही बल दिया गया है। कर्म. सिद्धान्त का उल्लेख अन्य दर्शनों में प्रासंगिक रूप से ही प्राप्त होता है । परन्तु जैन दर्शन की तात्त्विक और कार्मिक दोनों ही धारायें समान रूप से साथ-साथ चलती रही हैं। कार्मिक धारा के अन्तर्गत जैन दर्शन में कर्मवाद पर बहुत गहराई से चिन्तन किया गया है और सांगोपांग तर्क संगत एवं व्यवस्थित रूप से विपुल साहित्य लिखा गया है । कर्मग्रन्थ, कम्मपयड़ी, पंच संग्रह, षट्खण्डागम, कषायपाहुड, गोम्मटसार आदि विविध दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थ कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं ।
योगदर्शनकार महर्षि पंतजलि ने दृष्ट और अदृष्ट जन्म वेदनीय के रूप में केवल दो अधिकारों की स्थापना की है। ' वेदान्त दर्शन में स्वामी शंकराचार्य ने आगामी, संचित और प्रारब्ध त्रिविध कर्मों का उल्लेख किया है। यह उल्लेख भी अत्यन्त संक्षिप्त तथा संकेत मात्र पाया जाता है, जिससे कर्मसिद्धान्त की गहनता का स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता ।
कर्म सिद्धान्त की गहनता का परिचय देने के लिए जैन दर्शन में दस अधिकारों की स्थापना की गई है। जिनमें आगामी, संचित और प्रारब्ध कर्म तो हैं ही परन्तु वर्तमान कर्मों के आधार पर उन कर्मों की शक्ति के हीनाधिक होने का सूक्ष्म विवेचन भी अन्य अधिकारों में प्राप्त होता है। इन बन्ध, उदय, सत्वादि दस अधिकारों के अन्तर्गत उन कर्मों के स्वभाव, आत्मा से संयुक्त होने की कालमर्यादा, स्वभाव की तीव्रता - मन्दता तथा कर्मों के परिमाण विभाग को दर्शाने के लिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धे के अवान्तर अधिकारों की स्थापना की गई है । जीव के भावों के अनुसार कर्मों के विभिन्न भेद प्रभेदों का ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकृतियों के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । इस प्रकार जीव के वर्तमान परिणामों के अनुसार कर्म बन्धन की परिणमन शील अवस्थाओं का बन्ध, उदय, सत्व, क्षय, उपशम, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, निधत्त और निकाचित इन दस अधिकारों में किया गया है, जिन्हें कर्म सिद्धान्त के "दस करण" कहा गया है। जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत न केवल कर्मबद्ध अवस्था का अपितु कर्ममुक्त होने की अवस्था का भी चौदह सोपानों (गुणस्थान) द्वारा व्यवस्थित वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रकार से सूक्ष्म विवेचन को प्रस्तुत करने का
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१. क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्म वेदनीय, योग सूत्र, २/१२
२. शंकराचार्य, तत्वबोध, सूत्र ४३
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