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________________ १० . जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन - सांख्य और मीमांसा दर्शनमें भी संस्कारों तथा उसके बीजभूत कर्मका उल्लेख करते हुए कहा गया है- जिस प्रकार बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीज होता है उसी प्रकार संस्कारसे कर्म तथा कर्मसे संस्कार उत्पन्न होता है। रागद्वेष से निवृत हो जाने पर भी योगी कुलालचक्रके भ्रमण की भाँति पूर्व संस्कार वश शरीरको धारण किये रहता है। ___कर्म के साधन मन वचन तथा काय ये तीन होते हैं जिनके द्वारा प्राणी प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता रहता है और उनसे अन्त:करण में सहज रूप से संस्कारों का निर्माण होता रहता है । वे संस्कार शुभाशुभ, पुण्यपाप रूप में स्वीकार किये गये हैं। जैन दर्शनमें इनका विवेचन करते हुए कहा गया हैकायवाड्.मन:कर्म योग:""शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य २ अर्थात् मन वचन काय से प्राणी जो कुछ भी करता है, वह शुभ और अशुभ रूप होता है। शुभ पुण्यका कारण है और अशुभ पापका कारण है। इसी प्रकार मनुजीने मनुस्मृतिमें कहा है - "शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम्" अर्थात् मन-वचन-काय से किये जाने वाले कर्मों का फल शुभ या अशुभ होता है। योग दर्शन में भी इसी प्रकार पुण्य पाप के हेतु शुभाशुभ कर्मों का विवेचन प्राप्त होता है। - इस प्रकार पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्मों का उल्लेख किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों में प्राप्त होता है।न्यायवैशेषिक इसे धर्म-अधर्म कहतेहैं, मीमांसा दर्शनमें इसे अपूर्व कहा गया है। योगदर्शनमें इसे ही कर्मके नाम से अभिहित किया गया है। बौद्धदर्शन में कुशल तथा अकुशल कर्मों के द्वारा कर्म विषयक सिद्धान्त का विवेचन किया गया है । जैन दर्शन का श्रेय सुख-दुख तथा जन्म-मरण का अन्वेषण करते हुए सभी दर्शनों ने जीवों के कर्मों तथा संस्कारों का उल्लेख किया है, परन्तु इस विषय का जितना सूक्ष्म तथा विस्तृत अध्ययन जैन दर्शन में प्राप्त होता है वह अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। इसका १.. तिष्ठति संस्कारवशाच्चक्रममवद्धृत शरीर: सांख्यकारिका न.६७ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६,सूत्र, १,३ ३. मनुस्मृति, अध्याय ११, श्लोक ३ ४. इच्छादेषपूर्विकाधर्माधर्मप्रवृत्ति-वैशेषिक सूत्र ६.२.१४ ५. कर्मेभ्य: अपूर्व प्रतीयेदाभिर्तत्वात्प्रयोगस्य। जैमिनी सूत्र २.१.४ ६. क्लेशमूल: कर्माशयो, योगसूत्र, २.१२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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