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जीवन कासारसुखएवंशान्ति है।इसजीवन मेंधन, कुटुम्ब आदिविविधकर्मजन्य संयोग के कारण वर्तमान में प्राणी कितनाही दु:खीवचिन्तितहोरहा है परन्तुमूलत: समस्त प्राणियों की जन्मजात स्वाभाविक प्रवृत्ति सुख प्राप्तिकी ही होती है, परन्तु जीवन पर्यन्त बड़े से बड़ा लौकिक पुरुषार्थ और कठोरसे कठोर परिश्रम करते हुए भी उनकी यह प्रवृत्ति चरितार्थ नहीं होती। यह तथ्य निर्विवाद और सर्वसम्मत है। डॉ० दास गुप्तके शब्दों में “जो कुछ सुखके रुप में हमारे सामने आता है, वह सब दु:खका ही हेतु है, क्योंकि कोई भी सांसारिक सुख स्थायी आनन्द नहीं दे सकता। इस सुखकी प्राप्तिमें भी दु:ख है
और सुख के छूटने में भी दु:ख है, २ सुखके लिए किये गये प्रयासका अवसान दु:ख तथा निराशाओं में क्यों होता है, यह प्रश्न सदा से ही चिन्तकों, मनीषियों और ऋषियों की विचारणा का विषय रहा है। इस प्रश्नका यथार्थ उत्तर प्राप्त करनेके लिए ही भारतीय तथा अन्य सकल दार्शनिक बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् का सूक्ष्म अध्ययन करते रहे हैं।
बाह्यजगत्सेतात्पर्य इस समस्त भौतिक जगत से है, जो सदा इन्द्रियों के समक्ष उत्पन्न और नष्ट होता रहता है, इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत्से तात्पर्य मानसिक जगत्से है, जिसे विविध प्रकार की वैकल्पिक चिन्तनाओंके रूप में मनुष्य अपने अन्दर अनुभव करता हैं और जिसकी गति भौतिक जगत् की अपेक्षा अधिक तीव्र है। यद्यपियेदोनोंपृथकपृथक् दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु यथार्थ में ये एक हैं, क्योंकि दोनों ही जगत् स्वभाव से ही उत्पन्न ध्वंसी है, अन्तर केवल इतना है कि बाह्य जगत् कारण है और आभ्यन्तर जगत् उसका कार्य, क्योंकि इन्द्रियोंके द्वारा भौतिक जगत् का ग्रहण होनेपर ही मनमें संकल्प विकल्पोंका आभ्यन्तर जगत् उत्पन्न होता है।
__ सुख-दु:खकाहेतु जानने के लिये और बाह्य तथा आभ्यन्तरजगत्कीसत्यता और असत्यताकाअन्वेषणकरने के लिये हीदर्शन शास्त्रकाजन्म हुआ। अनादिकाल सेअनेकों ऋषियों और दार्शनिकोंने अपनी चिन्तनाओं और अनुभूतियोंका नवनीत प्रदान करके दर्शनशास्त्रका विस्तार किया है। भारतीयदर्शनकी अविछिन्नधारामें जहाँन्याय, वैशेषिक,
१. जिनेन्द्र वर्णी, पदार्थ विज्ञान, पृष्ठ १ २. दास गुप्त, एस.एन.,भारतीय दर्शन का इतिहास, १९७८, भाग १ पृष्ठ ८१ (राजस्थान
हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर)
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