SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन मीमांसक, सांख्य, योग, वेदान्त, शैव तथा शाक्त आदि अनेकों दर्शन प्रसिद्ध हैं, वहीं जैन तथा बौद्ध दर्शन भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। २ दार्शनिक चिन्तनका मुख्य लक्ष्य, जीवनके क्लेशोंको दूर करने का उपाय खोजना है, जिससे प्राणी उस स्वाधीन, निर्बाध और स्थायी सुख को प्राप्त कर सके, जिसे मोक्ष, निर्वाण आदि विभिन्न नामोंसे अभिहित किया जाता है। जैन दर्शनमें इसका स्पष्ट आभास “तीर्थंकर” या तीर्थकर शब्दसे मिलता है । व्युत्पत्ति से इसका अर्थ है, तीर्थ अर्थात् “पार करनेकी जगह बनाने वाला” और लक्षणासे अर्थ है, वह जिसने संसार रूपी महासागरसे पार जानेका उपाय ढूंढ लिया है।' जीवसे कर्मोंकी आत्यन्तिकी निवृत्ति ही मोक्ष, निर्वाण तथा तीर्थंकर पदकी प्राप्ति है। शैव वैष्णवादि दर्शनों में यह सुख ईश्वर के सायुज्यकी प्राप्ति के रूप में होता है, न्याय वैशेषिक इसे साक्षात् ईश्वरत्वकी प्राप्ति कहते हैं। इस प्रकारके सुखकी प्राप्तिका उपाय ही भारतीय दर्शनोंमें धर्म समझा जाता है, क्योंकि दु:खसे छुड़ाने के लिये मोक्ष मार्गके रूपमें इसी की ओर संकेत किया गया है - जैसा कि समन्तभद्राचार्य कहते हैं - देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निर्वहणम् । संसार दु:खतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ दुःख तथा दुःख निवृत्ति के लिए बौद्धदर्शन में चार मूल तत्त्वों की स्थापना की गई है दुःख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध, और दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (मार्ग) | सांख्य तथा योग दर्शन में हेय, हेय हेतु, हान, और हानोपाय यह चतुर्व्यूह है, इसी प्रकार जैन दर्शन में सप्त तत्त्वों का उल्लेख मिलता है । जीव और अजीव नामक प्रथम दो तत्त्वोंके संयोगमें दुःखका स्वरूप निर्धारित किया गया है। आश्रव और बन्ध नामक दो तत्त्व दुःखके कारणोंका निरूपण करते हैं, संवर और निर्जरा तत्त्वमें दु:ख निरोधका उपाय है और मोक्ष तत्त्व दुःख का मूलतः, निरोध है । यहाँ तत्त्व शब्दका अर्थ अनादि अनन्त नहीं है, अपितु दु:ख निरोध के लिये जिनका ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है - वे ही वस्तुएं यहाँ तत्त्व रूप में वर्णित हैं । " जैनेतर दर्शनों में बाह्य तथा आभ्यन्तर जंगत् का अन्वेषण करते हुए अविद्या, अज्ञान, प्रकृति, माया आदिको इस जगत् का कारण बताया है, जिसके कारण व्यक्ति असत्य' को ही सत्य मान कर पुरुषार्थ करता है, परन्तु असत्य में किया गया पुरुषार्थ बालूको पेलनेके १. (क) हिरियन्ना एम०, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १९८०, पृ० १५ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग २ पृष्ठ ३७० २. समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-२ ३. ४. उमास्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १, सूत्र ४ संघवी सुख लाल, विवेचना सहित तत्त्वार्थ सूत्र, १९७६, पृ० ६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy