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________________ पृष्ठ भूमि समान व्यर्थ होता है। जिस प्रकार बालूको पेलनेसे तैलकी प्राप्ति असम्भव है, इसी प्रकार अज्ञानजनित अवस्था में सत्यपुरूषार्थ असम्भव है।जैनदर्शनमें इसे आश्रवतथा बन्धकहा गया है। संसारी जीव अपने यथार्थस्वरूपको नजाननेके कारण नित्य राग रंजित क्रियाओं कोकरता हुआकाँका बन्धकरतारहताहै, इसप्रकारकी क्रियाओंकोकरतेहुए आश्रवतथा बन्धसे छूटना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। जैनेतर दर्शनोंमें दु:खसेछूटनेके लिए अविद्या निवृत्ति पर विशेष बल दियागया है, परन्तु जैनदर्शनमेंन केवल यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति अपितु उसके साथ ही संयम, तप आदि की विविध साधनाओंपर भी विशेष बल दिया गया है इसी लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों का सम्मिलित रूप ही मोक्ष मार्गके रूपमें अंगीकार किया गया है। जिसके द्वारा नवीन कर्मों को रोका जाता है और पूर्व बद्ध कर्मोकानाश कियाजाताहै। संवर और निर्जरातत्त्वोंके द्वारा इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। जीव तथा अजीव नामक दो तत्त्व कर्म सिद्धान्तकी आधारशिलायें हैं, आश्रव, बन्छ संवर और निर्जरा इन चार तत्त्वोंमें कोंके आनेका कारण, कर्मों का स्वरूप और कर्मोंसे छुटनेका उपाय बताया गया है मोक्ष तत्त्व इनका फल है। इस प्रकार यह दर्शन एक विचार प्रणाली न रहकर एक जीवन प्रणाली है, जिसमें नियमित आचरण की भी व्यवस्था की गई है। डा० हिरियन्नाके शब्दों में-जैन दर्शनका मूलमन्त्र है किज्ञानके लिएजीवन नहीं, अपितु जीवन के लिए ज्ञान है। सुख दु:ख का कारण सुख - दुखके कारणका अन्वेषण करते हुए सभी भारतीय दर्शनों में सुख दु:ख के कारणोंपर विचार किया गया है। सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, शांकर, जैन और बौद्ध सभी दर्शनों में दु:खका मूल कारण अविद्या को ही बताया है। बौद्ध दर्शन में कार्यकारण श्रृंखला की कड़ीमें अविद्याको मुख्य कड़ीके रूपमें स्वीकार किया गया है। सांख्य तथा न्यायवैशेषिकमें अविद्या को प्रकृति तत्त्वके रूपमें स्वीकार किया है, जैन दर्शनमें अविद्या के स्थान पर “मिथ्यात्व" कहा गया है, जिसका अर्थ है, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको न जानकर विपरीतको ही यथार्थ मानना। मिथ्यात्व को ही सुख - दु:ख अथवा कर्मबन्ध के कारणोंमें सबसे प्रथम कारण कहा गया है। इस प्रकार सुख-दु:खका कारण प्राय: सभी दर्शनमें अविद्याको ही स्वीकार किया गया है चाहे उसका नाम तथा रूप कुछ भी हो, परन्त १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उमा स्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १ सूत्र १ २. हिरियन्ना एम० भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६ ३. मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाय योगा : बन्ध हेतवः । उमास्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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