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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अभिप्राय समान ही है । जो वस्तु अवास्तविक है, उसे वास्तविक समझना, जो अनात्म है उसे आत्म समझना ही अविद्या है। यही संसार भ्रमण तथा समस्त दु:खों का प्रतीक है । जैन दर्शनके अनुसार मिथ्यात्वके कारण ही जीव की अनन्त शक्तियाँ आच्छादित हो जाती हैं और उसका ज्ञान सीमित तथा इन्द्रियाधीन हो जाता है । इन्द्रियों में समस्त शेयों को युगपत ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती, इसी कारण पूर्व विषयछूटता रहता है और अग्रिम का ग्रहण होता रहता है। समग्र को युगपत ग्रहण न कर पाना ही दु:ख का कारण है। उपनिषदों में भी कहा है, “यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति । भूमैव सुखं भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य । २ इस अल्पता के कारण ही गत विषयों का स्मरण, अनागत की चिन्ता तथा इष्ट - अनिष्टकी कल्पना जागृत होती है। इष्ट विषयों की प्राप्तिकी कामना, राग और अनिष्ट विषयोंके वर्जनकी कामना द्वेष कहलाती है। यह इष्टानिष्ट, राग-द्वेष युक्त कामना ही नवीन कर्मके संचयमें कारण होती है। इस राग-द्वेष युक्त कामनाको ही आचार्य उमास्वामी ने आर्तध्यानके रूपमें निरूपण किया है - अर्ति का अर्थ है दु:ख या पीड़ा। पीड़ा से उत्पन्न हो वह आर्त है, अप्रिय वस्तु की प्राप्ति और प्रिय वस्तु के वियोग होने पर ही इस प्रकार की राग-द्वेष युक्त कामना उत्पन्न होती है। नवीन कर्म का संचय करने वाली यह कामना ही सुख-दु:ख का मूल कारण है, जिसे चार्वाक को छोड़ कर सभी भारतीय दर्शनों ने माना है। प्रत्येक जीवात्मा में यह हीनाधिक रूप से विद्यमान होती है और इसी हीनाधिकता के कारण ही बाह्याभ्यन्तर जगत् में विषमता दृष्टिगोचर होती है। बाह्याभ्यन्तर जगत् की विषमता इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष यह बाह्य जगत् और अन्तर्मन में कल्पित आभ्यन्तर जगत् सर्वत्र सर्वदा वैषम्यपूर्ण देखे जाते हैं। संसारमें जितने भी जड़ या चेतन पदार्थ दिखाई देते हैं, उन सबकी प्रकृति, शक्ति तथा स्थिति भिन्न-भिन्न होती है, कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ के साथ सर्वथा साम्यता नहीं रखता । मनुष्य . मनुष्य रूपसे एक होते हुए भी कोई सुखी कोई दु:खी, कोई मूर्ख और कोई विद्वान् देखा जाता है। एक ही परिवारमें उत्पन्न होने वाले विभिन्न शिशुओंकी १. क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदभवति · कुन्दकुन्द स्वामी, प्रवचनसार, तात्पर्यवृति, गाथा ६० २. छान्दोग्य उपनिषद्, अध्याय ७, खण्ड २३, मन्त्र १ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १, सूत्र ३१-३३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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