SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद ४. प्रदेश बन्ध जैन दर्शनमें कर्म बन्धका विभाजन कमों के घनत्वके आधार पर भी किया गया है। कुछ कर्म अत्यधिक कर्म पुद्गलोंके और कुछ कर्म अल्प पुद्गलोंके समूह रूप होते हैं, इस प्रकार घनत्वकी दृष्टिसे किया गया बन्ध प्रदेश बन्ध कहलाता है।' प्रदेशका लक्षण करते हुए जयधवला टीकामें कहा गया है – “निर्भाग - आकाशावयव: प्रदेश: २ आकाशका ऐसा अवयव जिसका दूसरा विभाग न हो सके अर्थात् आकाशके अविभागी अंशको प्रदेश कहते हैं और यह अविभागी अंश एक परमाणुके समान स्थान घेरता है। पूज्यपादजी ने प्रदेश शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए कहा है- “प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशा: परमाणव:"३ अर्थात प्रदेशोंका दिग्दर्शन परमाणुओं द्वारा होता है। कर्म प्रकृतियों के कारणभूत सूक्ष्म, एकक्षत्रावगाहा, अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुओंका आत्म प्रदेशों के साथ संबंधको प्राप्त होना ही प्रदेश बन्ध कहलाता है। जिनेन्द्र वर्णीजी ने कोशमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस प्रकार अखण्ड आकाशमें प्रदेश भेदकी कल्पना करके अनन्त प्रदेश बताये गये हैं, उसी प्रकार सभी कर्मों में प्रदेशोंकी गणनाका निर्देश किया गया है। उपचारसे पुद्गल परमाणुको भी प्रदेश कहते हैं। पुद्गल कर्मों के प्रदेशोंका जीवके प्रदेशोंके साथ बन्धको प्राप्त होना प्रदेशबन्ध कहा गया है।" प्रदेश बन्ध, कर्म रूपसे परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्याका निर्धारण करता है । मन, वचन और कायके योगोंकी तीव्रता होने पर अधिक प्रदेशोंका बन्ध होता है और मन्दता होनेपर अल्प प्रदेशोंका बन्ध होता है। इस प्रकार योगशक्तिकी हीनाधिकता पर ही कर्मपरमाणुओंकी हीनाधिकता अवलम्बित है। जब तक यह जीव कर्मबन्धकी कारणभूता कषाय विशिष्ट, मन वचन काय के योगोंकी प्रवृत्ति को नहीं रोकता, तब तक बन्धकी श्रृंखला निरन्तर बनी रहती है। प्रवृत्ति को रोकनेपर ही बन्ध श्रृंखलाका विच्छेद होता है। १. हर्ट आफ जैनिजम, पृ० १६२ २. कवाय पाहुड, २/२ पृ०७ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९२ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र २४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० १३५ ६. "इयत्तावधारण प्रदेश: सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९ ७. उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० १३६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy