________________
१५६
नाम
अ. दर्शन मोहनीय ब. चारित्र मोहनीय
ख. अघातिया ५. वेदनीय
६. आयु
७. गोत्र
८. नाम कर्म
गति
जाति
शरीर
बन्धन
संघात
निर्माण
अंगोपांग
संस्थान
संहनन
स्पर्शादि
आनुपूर्वी
अगरुलघु
उपघात
परघात
आतपत्रिक
विहायोगति
त्रस चतुष्क
स्थावर चतुष्क सुभगषटक
दुभंग षटक
तीर्थंकरत्व
भेद
१
३
१
२
१
५
५
५
१
३
१
१
२०
२ :
१
१
३
१
४
1
पुण्य प्रकृतियाँ
सातावेदनीय मनुष्य तिर्यच
देव
उच्च गोत्र
Jain Education International 2010_03
मनुष्य, देव पंचेन्द्रिय
9
औ०, वै० आ० तै०, का०
औ०, वै०, आ०
तै०, का०
औ०, वै०, आ०
तै०, का०
निर्माण
औ०, वै०, आ०,
समचतुरस्र वज्रवृषभनाराच
८ स्पर्श, ५ रस,
२ गंध ५ वर्ण
देव, मनुष्य
अगरुलघु
परघात
आतप, उद्योत,
उच्छवास
प्रशस्त
त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त
६ सुभग, सुस्वर,
स्थिर, शुभ,
आदेय, यशः
भेद
३
२५
१
१
१
२
४
५
५
२०
२
१
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
पाप प्रकृतियाँ
मिथ्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व, सम्यक्
१६ कषाय ९ नोकषाय
४
असातावेदनीय नरक आयु
नीच गोत्र
तिर्यंच, नरक
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रय, चतुरिन्द्रय
न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक वज्रनाराच, अर्धनाराच, नाराच, कीलक, असंप्राप्तसृपाटिका
८ स्पर्श, ५ रस, २ गंध, ५ वर्ण
नरक, तिर्यंच
अप्रशस्त
स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त
दुभंग, दुस्वर, अस्थिर, अशुभ, अनादेय, अयश
१
तीर्थंकर
६८
१००
नोट- स्पर्शादि की २० प्रकृतियां पुण्य तथा पाप दोनों में गर्भित की हैं। अत: (१००+६८)-२० = १४८
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org