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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जीवोंमें से कुछ जीव अपनी पृथक् सत्ता को लिये हुए ही मुक्त हो जाते हैं। मुक्त 'हो जाने पर भी यह राशि अनन्त ही रहती है। ५. निष्कर्ष इस प्रकार संक्षेपमें कहा जा सकता है कि जैन मान्य जीवकी विशेषतायें अथवा गुण अन्य मतोंकी किसी न किसी मान्यताका निराकरण करते हैं। आत्माका जीवत्व व चेतनत्वगुण चार्वाककी आत्म विषयक मान्यतांका निराकरण करता है, जीव दर्शन-ज्ञान स्वभावी है, यह न्याय दर्शनकी मान्यताका निराकरण करता है, जीवका अमूर्तत्व मीमांसा मतके विपरीत है, जीव कर्ता है, यह कथन सांख्य मत के विपरीत है, जीव भोक्ता है, यह दृष्टि बौद्धोंके क्षणिकवादक खण्डन करती है। जीवका देह परिमाणत्व न्याय, मीमांसा और सांख्य मत विपरीत है । कर्मबद्धजीव संसारी होता है, यह मत सदाशिव सम्प्रदायका खण्ड करता है, जीवका मुक्त होना चार्वाक और मीमांसा मतके विपरीत है और जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभावी होना माण्डलिक मतका निराकरण करता है । इन न विशेषताओं से जैनदर्शनके जीव विषयक दृष्टि का स्पष्ट परिचय प्राप्त हो जाता है। . जैन दर्शन मान्य जीव अनादि कालसे कर्मों से संयुक्त है, परन्तु फिर भी वह पूर्णतया कर्मों के आधीन नहीं है। कर्मबन्धनके चक्रको सतत गतिशील बनाये रखनेमें और कर्मबन्धन से मुक्त होने में जीव स्वयं समर्थ है। जीव स्वयं ही अपने पाप कर्मों से भिखारी बनता है और स्वत: ही मोक्ष पुरूषार्थके द्वारा भिखारी से भगवान बन सकता है। जैन दर्शन किसी अनादि सिद्धपरमात्माकी सत्ताको स्वीकार नहीं करता। सिद्धअवस्थाको प्राप्त जीव ही परमात्मा है। जीवोंकी गिनती नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी संख्या अनन्त है। प्रत्येक जीव अपनी स्वतं सत्ता को लिये हुए ही मुक्त होता है । १. कैलाशचन्द शास्त्री, जैन धर्म, १९७५, पृ० ११९ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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