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कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा
१८७ न पूर्वा: अपूर्वा:" अर्थात् इस अवस्था में जीव ऐसे शुद्ध परिणामोंको प्राप्त करता है, जो इससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुए थे, इसी कारण इस अवस्थाको अपूर्वकरण अन्वर्थक संज्ञा प्राप्त है। डॉ० सागरमलके कथनानुसार इस अवस्था में आत्मा दृढसंकल्प पूर्वक संघर्षके लिए तत्पर हो जाता है और राग और द्वेष रूपी कर्म शत्रुओंको परास्त कर देता है । राग-द्वेष आदि प्रधान कर्म शत्रुओंके परास्त हो जाने से आत्मा जिस आनन्दका लाभ करता है, वह सभी पूर्व अनुभूतियोंसे विशिष्ट प्रकारका होता है । इसीलिए यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कहीजाती है। .
अपूर्वकरणकी अवस्थामें आत्मा कर्म शत्रुओंपर विजय लाभ करते हुए जिन प्रक्रियाओंको करता है, उन्हें अपूर्वकरणके चार आवश्यक कहा जाता है। इनके नाम हैं - १. गुणश्रेणी २. गुण संक्रमण ३. स्थिति खण्डन और ४. अनुभाग खण्डन।
गुणश्रेणी ऐसी अवस्था को कहा जाता है, जब जीव कर्मों के विपाक कालके पूर्व ही उन्हें फलोन्मुख कर लेता है। अर्थात् जीवके शुद्धभावों के परिणाम स्वरूप कर्मों की सत्ता छिन्न भिन्न होने लगती है और वे समयसे पूर्व ही फल देकर पृथक हो जाते हैं।
गुण संक्रमण ऐसी अवस्थाको कहा जाता है जिसमें कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर होजाता है - जैसे वेदनीय कर्मकी असाता प्रकृतिका उसी कर्मकी सातामें रूपान्तर हो जाना।'
इसीप्रकार कर्मबन्ध अधिकारमें निर्दिष्ट अष्टकर्मों का उत्तरप्रकृतियों के गुणों में परिवर्तन हो जाता है और यह परिवर्तन अशुभको शुभ रूपमें रूपान्तरित कर देता है ।
स्थितिखण्डन अपूर्वकरणमें एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें कर्मों की सत्तागत स्थिति (काल) खण्डित हो जाती है। इसका अभिप्राय: यह है कि यदि किसी कर्मकी स्थिति अधिक हो तो विशुद्ध परिणामोंके फलस्वरूप उसकी स्थिति कम हो जाती है इसीको स्थिति घात या स्थिति खण्डन कहा जाता है।
१. धवला, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १६, पृ० १८० २. वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं० ३, हिन्दी विभाग, पृ० ८२ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १२ ४. लब्धिसार, गाथा ५३, पृ० ८४ धवला पुस्तक ६, खण्ड १; सूत्र ५, पृ० २२४ ५. क्षपणसार,गाथा ५८३. ६. क्षपणसार, गाथा ४१८
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