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MANGAL
कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
. वेदान्तमें कर्म बन्धके कारण- वेदान्तमें अज्ञानको ही बन्धका मूल कारण कहा गया है। वेदान्तके अनुसार अज्ञानको सत् और असत्से भिन्न अनिर्वचनीय कहा गया है, क्योंकि सत् बस्तुका ब्रह्मकी तरह नाश नहीं होता और असत् आकाश पुष्प अथवा वन्ध्यापुत्रके समान प्रतीतिमें नहीं आता, परन्तु अज्ञानका नाश भी होता है और प्रतीतिमें भी आता है । अज्ञानके कारण ही जीव संसार चक्रमें बन्धा हुआ है । ६. सांख्य दर्शनमें कर्म बन्धके कारण
सांख्य दर्शनमें भी ज्ञानके विपर्ययको कर्म बन्धका कारण कहा गया है। अनुराधा व्याख्या करते हुए चतुर्वेदीने कहा है कि विपर्ययात् पदसे, ज्ञानके विपरीत अज्ञानका ग्रहण होता है, जो मोक्षके विपरीत संसार बन्धका कारण है। यह बन्धन भी तीन प्रकारका होता है - प्राकृतिक, वैकृतिक और दाक्षणिक । प्रकतिको आत्मा मानकर उसकी उपासना करना प्राकृतिक बन्ध है, पंचमहाभूत, इन्द्रिय, अहंकार और बुद्धिको ही पुरूष मानकर उपासना करना वैकृतिक बन्ध है और यज्ञकी समाप्तिपर प्राप्त दक्षिणामें ही आस्था रखकर आजीवन यज्ञादि कर्म करते रहना दाक्षणिक बन्ध है। महर्षि रमणने कहा है कि चेतन और जड़ जगत्के बीच भ्रामक अहंका रहस्यमय आर्विभाव ही सब क्लेशोंका मूल है । अर्थात् बन्ध का कारण है। ७. योग दर्शनमें कर्म बन्धके कारण
योग दर्शनके अनुसार क्लेश संसारका अर्थात् बन्धका मूल कारण है । सब क्लेशोंका मूल अविद्या है। सांख्य दर्शनमें जिसे विपर्यय कहा गया है, योग दर्शनमें उसे ही क्लेश कहा गया है । वाचस्पति मिश्रने सांख्यतत्व कौमुदीमें योगदर्शन मान्य पंच क्लेशोंको क्रमश: तमस, मोह, महामोह, तामिस और अन्धकार कहा है- अविद्याऽस्मिता, राग-द्वेषाभिनिवेशा: यथासंख्यं तमो, मोह, महामोह, तामिसान्ध-तामिस संज्ञका पंच विपर्यय: विशेषाः ।' योग दर्शनके अनुसार अनित्य, अशुचि, दु:खमय और अनात्म वस्तु में नित्य, शुचि, सुखमय और आत्मबुद्धि करना ही अविद्या है। १. “अज्ञान सदसदभ्यामनिर्वचनीय" सदानन्द, वेदान्तसार, खण्ड ६ २. विपर्ययादिष्यतेबन्धः, सांख्यकारिका, ४४ ३. सांख्यकारिका ४४, अनुराधा व्याख्या, १९७४, पृ० १५४ ४. रमण महर्षि, कृष्ण स्वामीनाथन्, पृ०८० ५. सांख्य तत्त्व कौमुदी १९३५, पृ०४३७, मैट्रोपोलियन प्रिटिंग एण्ड पब्लिशिंग हाऊस, कलकत्ता। ६. अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या, योग सूत्र २,५
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