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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २. बौद्ध दर्शनमें कर्म बन्धका कारण
बौद्ध दर्शनमें निर्दिष्ट चार आर्य सत्योंमें द्वितीय आर्य सत्य, दु:ख समुदयमें, दु:खके कारणों का निर्देश किया गया है । दु:खके बारह कारणोंको एक श्रृंखलाके रूपमें निर्दिष्ट किया गया है, इनको द्वादश प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है । कार्यकारण श्रृंखलामें अविद्या को ही सबसे प्रथम दु:खका कारण माना गया है। बौद्ध दर्शनमें प्रतीत्य समुत्पादके द्वारा बन्धके कारणोंको निर्दिष्ट कर कर्मवादकी स्थापना की गई है। आश्रवसे अविद्याका समुदय और अविद्यासे आश्रव होता रहता है। ३. न्यायवैशेषिक दर्शनमें कर्म बन्धका कारण
न्याय दर्शनमें बन्धके प्रमुख कारण रागद्वेष और मोह कहे हैं। रागसे काम, मात्सर्य, स्पृहा, तृष्णा और लोभ ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं, द्वेषसे क्रोध, ईर्ष्या, असूया, तृष्णा और आमर्ष ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं और मोहसे मिथ्याज्ञान, विचिकित्सा मान और प्रमाद ये चार दोष उत्पन्न होते हैं । इन चौदह दोषों के कारणही प्राणी संसारमें बन्धको प्राप्त होता है। इन दोषोंमें मोह सबसे प्रधान दोष माना जाता है, क्योंकि मोहके कारण अविद्या राग व द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिससे देहादि अनात्म वस्तुओंमें, आत्माकी प्रतीति होने लगती है । वैशेषिक दर्शनमें अविद्याके चार कारण बताये गये हैं - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न। अविद्या का कारण बताते हुए कणादने कहा है- “इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या"६ ४. मीमांसा दर्शनमें कर्म बन्धके कारण
वैदिक अनुष्ठान विधियोंको, सम्यक् प्रकारसे प्रतिष्ठित करने के लिए, जैमिनीने मीमांसा सूत्रोंका प्रणयन किया। मीमांसा दर्शनमें कर्म अनेक प्रकारके कहे गये हैं - नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म, काम्य कर्म, प्रतिषिद्ध कर्म आदि । इनमेंसे स्नान, सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म और अनिष्ट ग्रहशान्ति, प्रायश्चितादि नैमित्तिक कर्म, बन्धके कारण नहीं होते, इन कर्मों को यज्ञार्थ कर्म भी कहा जाता है । पुत्र प्राप्ति अथवा स्वर्ग प्राप्ति आदिफलोंकी कामना रखकर किये जाने वाले काम्य कर्म और महान् पातकयुक्त गोवधादि प्रतिषिद्ध कर्म, बन्धके कारण कहे जाते हैं।" १. सिन्हा, हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ०९४ २. मज्झिमनिकाय, १.१.९. ३. तत्रैराश्य राग द्वेषमोहार्थान्तराभावात्, न्यायसूत्र, ४, १, ३ ४. वात्सायनभाष्य, न्याय सूत्र, ४,१,३ ५. तेषां मोहः, पापीयान्नामूढस्येतरेतरोत्पत्ते: , न्यायसूत्र ४,१,६ ६. वैशेषिक सूत्र, ९, २, १० ७. “यज्ञात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:", भगवद्गीता, ३,९.
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