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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन। ८. जैन दर्शनमें बन्धके कारण
यद्यपि जैन दर्शनमें भी अन्य भारतीय दर्शनोंकी भाँति अज्ञान, अविद्या क्लेश आदि बन्धके कारणों का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु जैन दर्शन बन्धन संबंधी विचारों में निजी विशिष्टता है । इस विशिष्टताका कारण जैनोंका जीव तथा पुद्गलके प्रति स्वतंत्र विचार कहा जा सकता है।
जैनोंने जीवोंको अनन्त माना है। प्रत्येक जीवमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति रूप अनन्त चतुष्ट्य पाया जाता है। पौद्गलिक संबंध हो जाने पर, बन्धकी अवस्थामें ये अनन्त शक्तियाँ आवृत है। जाती हैं, जिसके फलस्वरूप अनन्त शक्तियाँ, शक्ति रूपमें ज्योंकी त्यों रहते हुए भी, उसी प्रकार व्यक्त नहीं हो पाती, जिस प्रकार मेघके आवरणके कारण सूर्यका प्रकाश व्यक्त नहीं होता । प्रकाशका न्यून या अधिक व्यक्तपना आवरणको प्रगाढता अथवा विरलता पर निर्भर करता है । आवरण प्रगाढ होनेपर प्रकाश कम व्यक्त होता है, आवरणकी प्रगाढता हीन होते जाने पर प्रकाशकी मात्रा बढ़ती जाती है और आवरणके पूर्णतया नष्ट हो जाने पर आत्माका प्रकाश पूर्ण व्यक्त हो जाता है । आवरण का पूर्णतया क्षय हो जाना ही आत्माकी कर्मों से मुक्ति कहीं जाती है, इससे पूर्व सभी आत्मायें हीनाधिक रूपमें, कर्मों के आवरणसे मलिन मानी जाती है । इस आवरणको ही प्रमुखतया बन्ध कहा गया है।
आत्मा अनादिकालसे इस आवरण युक्त अवस्थामें ही विद्यमान है । इस आवरण युक्त अवस्था अथवा कर्म बन्धके कारणों का विश्लेषण करते हुप सुखलाल संघवीने कहा है-जैनदर्शनमें बन्धके कारणों की चर्चा तीन प्रकार की गई है - एक परम्परामें, कषाय और योग दो ही बन्धके हेतु माने गये हैं, दूसरी परम्पराके अनुसार, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धके हेत माने गये हैं, तीसरी परम्पराके अनुसार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय और योगये पाँच बन्धके हेतु माने गये हैं। उमास्वामीने तत्त्वार्थ सूत्र में इन पाँच हेतुओंका ही उल्लेख किया है । मिथ्यात्वाविरति-प्रमादकषाय योगा: बन्धहेतवः"२ जैन आगमोंमें न्याय दर्शनके समान रागद्वेष और मोहको भी बन्धका कारण माना गया है । इन दोनोंके मूलमें मोह ही है। इन कारणोंकी संख्या और नामोंमें भेद अवश्य दृष्टिगोचर होता है, परन्तु तात्विक दृष्टिसे अन्तर नहीं है । राग और द्वेषका समावेश कषायमें हो जाता है, प्रमाद एक प्रकारका असंयम ही है, इसी कारण १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० १९२ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १ ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३२,सूत्र ७ ४. स्थानांग सूत्र,२,२
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