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कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
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प्रमादको असंयम अथवा अविरतिमें समाविष्ट कर देने पर चार हेतु रह जाते हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषायके स्वरूपसे भिन्न नहीं है, अतः इन दोनों को कषायमें गर्भित कर कषाय और योग ये दो हेतु कहे जाते हैं । ' जैसे चिकने शरीरपर धूली अधिक लगती है उसी प्रकार मिध्यात्व कषाय आदि से आत्मा में कर्म होने योग्य पुद्गल परमाणु एक क्षेत्रावगाह रूपसे संचित हो जाते हैं। पांचों कारणोंका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१.
मिथ्यात्व
बन्धका सबसे प्रथम तथा प्रधान कारण मिथ्यादर्शन है । आत्मासे विपरीत श्रद्धाको मिथ्यादर्शन कहते हैं ।' स्वात्म तत्त्वसे अपरिचित संसारी आत्मायें शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदिमें ममत्व बुद्धि रखती हैं। इन सबकी प्राप्तिको इष्ट तथा इनसे विच्छेदको अनिष्ट मानती हैं और इष्टके प्रति प्रवृत्त तथा अनिष्टकी ओरसे निवृत होने का प्रयास करती हैं। यही रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति बन्धका मुख्य कारण बन जाती है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्तिका मूल कारण मिथ्या श्रद्धा है । यह मिथ्या श्रद्धा दो प्रकारसे उत्पन्न होती है - १. परोपदेशपूर्वक २. नैसर्गिक । सुखलालके अनुसार विचार शक्तिका विकास होनेपर भी, जब किसी एक ही दृष्टिको पकड़ लिया जाता है और वह दृष्टि तत्त्वके विपरीत हो, तब ऐसे दर्शनको ही मिथ्यादर्शन कहते हैं, परोपदेशपूर्वक होने से उसे, “ अभिगृहीत मिथ्यादर्शन" कहा जाता है । अनादिकालीन आवरणके कारण, जिस समय केवल मूढतासे ही तत्त्वके विपरीत श्रद्धा हो, तब उसे नैसर्गिक या उपदेश निरपेक्ष होने से " अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन" कहा जाता है । दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी सभी ऐकान्तिक आग्रह अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं, यह मनुष्य जैसी विकसित अवस्थामें ही संभव है, दूसरा अभिगृहीत मिथ्यात्व कीट, पतंग आदि अविकसित चेतना वाली अवस्थामें भी संभव है । ४
मिथ्यात्वके कारण जीव धर्मके स्थानपर अधर्मको, सुमार्गके स्थानपर कुमार्गको, साधुत्वके स्थानपर असाधुत्वको और अमूर्त के स्थानपर मूर्त विषयोंको ग्रहण करता है । " मिथ्यात्वको यद्यपि कर्मबन्धका प्रमुख कारण माना गया है, परन्तु केवल मिथ्यात्वही बन्धका कारण नहीं है, अपितु आत्माके स्वाभाविक
१. भगवती आराधना, गाथा १८२१
२. “स्वात्म श्रद्धान विमुखत्वम् मिथ्यादर्शनम् ” नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ९१
३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७५
४. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९३
५. स्थानांग सूत्र, १०.१
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