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________________ ११४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन गुणोंके आवृत्त होनेपर ही बन्ध होता है।' २. अविरति कर्मबन्धका दूसरा कारण अविरति है। "विरमण विरति:" अर्थात् विरक्ति होना विरति है और विरतिका अभावही अविरति है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिगह इन पांचों दोषोंसे विरक्त न होना ही अविरति कहा जाता है। दूसरे शब्दोंमें कहा गया है कि आभ्यन्तरमें, निज परमात्मस्वरूपकी भावनासे उत्पन्न, परम सुखामृतका अनुभवकरते हुए भी, बाह्य विषयोंमें अहिंसा, असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतोंको धारण न करना ही अविरति है । बन्धके कारण रूप इस अविरतिको बारह प्रकारका कहा जाता है - पृथ्वी, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन षदकायिक जीवोंपर दया न करना और मन, स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण इन षट्करणों के विषयोंका सेवन करना। पूज्यपादजी ने कहा है - अविरतिद्वादशविद्या: षट्कायषट्करण विषयभेदात्"" ३. प्रमाद कर्मबन्धका तीसरा कारण प्रमाद है । सुख लाल संघवीने प्रमादका विवेचन करते हुए कहा है कि प्रमादका अर्थ है आत्मविस्मरण । आत्मविस्मरणका स्पष्टीकरण करते हुए पुन: कहा है - कुशल कार्यों में अनादर अर्थात् कर्त्तव्य अकर्तव्यकी स्मृतिमें असावधानी करना ही आत्मविस्मरण है। पूज्यपादजी ने प्रमाद शब्द का अर्थ करते हुए कहा है - "प्रमाद: कुशलेष्वनादर:"६ क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य आदि धर्मों में अनुत्साह या अनादर भावके भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । प्रमादके मुख्यतया पांच भेद कहे गये हैं - विकथा, कषाय? इन्द्रियराग, निद्रा और प्रणय । विकथा चार प्रकारकी कही गई है - स्त्री कथा. राजकथा, चौरकथा, और भोजनकथा। कषायके भी चार प्रकार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र, इन पांचों इन्द्रियोंसे 1. Bondage in the ultimate analysis consists in the obstructed an mutilated condition of the various capacities of the soul. Tatia Nathmal, studies in! Jaina philosophy P. 151. २. अविरमणे हिंसादि पंचविहो सो हवइणियमेण” आचार्य कुन्दकुन्द, बारस अनुवेकरवा, गाथा ४८ ३. द्रव्यसंग्रह, टीका, गाथा ३०, पृ०८८ ४. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ८, सूत्र १, पृ० ३७५ ५. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९३ ६. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७४ ७. राजवार्तिक, पृ०५६४ ८. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ०८१२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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