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सप्तम अध्याय कर्ममुक्ति के विविधसोपान-गुणस्थानव्यवस्था
मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देस विरदोय। विरदा पमत्त इदरो अपुव्व अणियदि सुहमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलि जिणो अजोगी य।
चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ॥ गो०जी०, गाथा ९, १० बन्धहेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १०, सूत्र २ सामान्य अवलोकन
प्राचीन जैनागम ग्रन्थों में आत्मा के विकासकी यात्राको गुणस्थानों के द्वारा अति सुन्दरतापूर्वक समुचित ढंगसे विवेचित किया गया है। गुणस्थान सिद्धान्त न केवल साधककी विकास यात्राकी विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करता है-अपितु आत्माकी विकास यात्राके पूर्वकी भूमिकासे लेकर गन्तव्य आदर्श तक समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करता है । गुणका अर्थ है-विकास और स्थानका अर्थ है-सोपान । इस प्रकार गुणस्थान विकासके सोपान होते हैं। आत्मा के स्वाभाविक गुणोंकी वृद्धि और आत्मा से संयुक्त कर्मपुद्गलोंकी हानि का दिग्दर्शन कराते हैं और पूर्ण अज्ञान तथा मिथ्या धारणाकी अवस्था से लेकर आत्मा की पूर्ण पवित्रता तथा अन्तिम मुक्ति तक का निर्देशन करते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके अनुसार मोह और मन, वचन-कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके अन्तरंग परिणामोंमें प्रतिक्षण होने वाले उतार चढ़ावोंका दिग्दर्शन कराने वाले गुणस्थान हैं।
गुणस्थानों के द्वारा पूर्व निर्दिष्ट कर्म बन्धके कारणोंका कमिक अभाव भी स्पष्ट दर्शाया गया है। ज्यों ज्यों गुणस्थानों में आरोहण होता जाता है. कर्म बन्ध के पूर्व-पूर्व कारणोंका विनाश होता जाता है । सबसे पहले बन्धका प्रथम मूल कारण मिथ्यात्व दूर होता है, इसके पश्चात क्रमश: अविरति, प्रमाद और कषाय दूर होते हैं । अन्तिम गुणस्थानमें बन्धका अन्तिम कारण योग भी दूर हो जाता है।
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1. Fourteen steps which, by a gradual increase of good qualities and decrease of Karma,
lead from total ignorance and wrong belief to absolute purity of the soul and final liberation.
James Hastings, Encyclopidio of Religion and Ethics 1964, Vol. VII P. 472, २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ०२४५
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