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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन विशुद्धि न होकर चारित्र विशुद्धि है दर्शन विशुद्धि प्राप्त हो जानेपर आगे विकास करते हुए चारित्र विशुद्धि अनिवार्य रूपसे होती है । सप्तम्, अष्टम् और नवम् गुणस्थानमें ग्रन्थि भेदकी यह प्रक्रिया चारित्र विशुद्धिके लिए होती है , जो चारित्र मोहनीय कर्मको नष्ट करती है।' निष्कर्ष
__ कर्म मुक्तिके मार्गसे यह स्पष्ट होता है कि कोंने अनादिकालसे जीवको बन्धनमें भले ही जकड़ा हुआ है, परन्तु फिर भी उसमें इतना अनन्त बलहै कि यदि दृढ व्यवसाय पूर्वक कर्मों से मुक्त होना चाहे तो विविध प्रकारके पुरूषार्थों के द्वारा मुक्त हो सकता है।
कर्म मुक्तिके प्रथम चरणमें नवीन कर्मों के आगमनको रोकना आवश्यक होता है, क्योंकि यदि संचित कर्म नष्ट कर दिये जायें और नवीन कर्म आते जायें तो कर्मोंसे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता । इसी कारण व्रत, समिति, गुप्ति,परीषहजय, चारित्र आदिकी विविध क्रियाओं के द्वारा नवीन कर्मों के आगमनको रोका जा सकता है और आभ्यन्तर विविध तपस्याओंके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जीर्ण किया जा सकता है।
प्रारम्भिक पुरूषार्थ ही इतना बलशाली होता है कि कर्मों की स्थितिका अत्यधिक अपकर्षण हो जाता है और पांच लब्धियोंमें अन्तिम करण लब्धिको प्राप्त कर व्यक्तिकी मिथ्याधारणायें भी सम्यक्त्वमे परिणत हो जाती हैं । कर्म मुक्तिके इस क्रमिक विकासको जैन दर्शन में कर्म मुक्तिके विविध सोपानोंके द्वारा दर्शाया गया है, जिसे जैन दर्शन में गुणस्थान कहते हैं।
१. पश्चनिर्दिष्ट, गुणस्थान व्यवस्था।
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