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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
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सूक्ष्म परिणमनको अर्थपर्याय कहा जाता है।' ये दोनों ही पर्याय पुन: स्वभाव तथा विभाव के भेद से दो-दो प्रकारकी हो जाती है, जैसा कि निम्न सारिणीमें निर्दिष्ट किया गया है
व्यंजन
२. विभाव
पर्याय
१. स्वभाव
(क) स्वभाव व्यंजन पर्याय
प्रदेशत्व गुणके विकारको व्यंजन पर्याय कहते हैं। जिस व्यंजन पर्याय में किसी दूसरे के निमित्तके बिना अपने स्वभाव से ही परिवर्तन होता है, उसे स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। जीवकी सिद्धपर्यायमें कोई अन्य निमित्त नहीं है, अपनी स्वाभाविक शक्तिसे ही वह इस पर्यायको प्राप्त करता है और चरम शरीर से किंचित् न्यून देहाकारमें स्थित होता है ।
(ख) विभाव व्यंजन पर्याय
१. वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा २५
२.
३.
४.
१. स्वभाव
(क.) जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३६ (क.) जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३७ वृहद् नयचक्र, गाथा २६
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अर्थ
प्रदेशत्व गुणका जो विकार दूसरे पदार्थके निमित्तसे होता है वह विभाव व्यंजन पर्याय कहलाता है, जैसे जीवकी नारक तिर्यंच आदि पर्याय | नारक तिर्यञ्चादि पर्याय जीवमें कर्मरूप पुद्गलों के निमित्तसे उत्पन्न होते हैं और स्थूल हैं, इसीलिये इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहा जाता है। दो अणुकादि स्कन्ध में परिणमित पुदगल विभाव व्यंजन पर्याय होते हैं ।
(ग) स्वभाव अर्थ पर्याय
प्रदेशत्व गुणके अतिरिक्त अन्य समस्त गुणका जो विकार बिना किसी दूसरे के निमित्तसे हो उसे स्वभाव अर्थ पयार्य कहते हैं जैसे जीवके ज्ञानादिगुण सिद्धावस्था में भी जीवके अनन्तज्ञानादि गुणों में सूक्ष्मवर्तन होता रहता है, इसीलिये यह जीवकी स्वभाव अर्थ पर्याय है । अणुरूप पुद्गल द्रव्यमें स्थित रूप, रस, गन्ध, वर्ण पुद्गल की स्वभाव अर्थ पर्याय हैं । "
२. विभाव
२५
(ख.) वृहद नयचक्र, गाथा २१, (ख.) वृहद नयचक्र, गाथा २३,३३
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