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वस्तु स्वभाव
(घ) विभाव अर्थ पर्याय
प्रदेशत्व गुणके अतिरिक्त अन्य समस्त गुणोंका जो विकार, पर निमित्त से उत्पन्न होता है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं।' जीवके राग द्वेषादि परिणाम कर्मपुद्गलों से उत्पन्न होने वाला सूक्ष्म परिवर्तन है, इसीलिये उसे विभाव अर्थ पर्याय कहा जाता है ।
इस प्रकार दोनों प्रकारकी द्रव्य अथवा व्यंजन पर्याय आकृतिका बोध कराती हैं और गुण अथवा अर्थ पर्याय गुणोंका बोध कराती हैं। व्यंजन पर्याय सामान्य होती हैं और अर्थ पर्याय विशेष होती हैं ।
११. वस्तुकी अनेकात्मकता
जैन दर्शनमें वस्तुको सामान्य विशेषात्मक कहा गया है।' वस्तुस्वभाव के अस्तित्वादि गुणों तथा उत्पन्न ध्वंसी पर्यायोंके विवेचनसे सामान्य विशेषात्मक गुणोंकी सिद्धि हो जाती है । जैन मान्य वस्तुके सामान्य और विशेष गुण न्यायवैशेषिक की तरह पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं रखते, अपितु वे परस्पर इस प्रकार मिले हुये हैं कि सामान्य विहीन विशेष और विशेष विहीन सामान्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती । आलाप पद्धतिमें कहा है
निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ||
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सामान्य और विशेषका परस्पर अविनाभावी संबंध है । ये दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते, क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुकी एकान्त पक्षसे सिद्धिनहीं हो सकती । सामान्य और विशेष उभय पक्षको वस्तु स्वभावमें युगपत माननेके कारण ही जैन दर्शनको अनेकान्तवादी कहा जाता है । वस्तुके उभय स्वरूपको न मान कर केवल एकान्त पक्षको मानने वाले दर्शन एकान्तवादी कहे जाते हैं । जैन मान्य वस्तु, स्वभावसे विपरीत होनेके कारण, जैन दर्शनकारोंने एकान्तवादके कथनको शून्य, असत्, मिथ्या और वस्तुका घात करने वाला कहा है, , क्योंकि वस्तुमें एक ही समयमें द्रव्य दृष्टिसे नित्यत्व और पर्याय दृष्टिसे १. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १६, पृ० ३६
२. द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, पृ० २३
३. सामान्यविशेषात्मकं वस्तु, आलाप पद्धति, पृ० ८८
४.
५.
आलाप पद्धति, श्लोक ९, पृ० १००
अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते, सती शून्यो विपर्ययः ।
ततः सर्वम् मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः । समन्तभद्राचार्य, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक, ९८
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