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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
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लेना उदीरणा है। इस प्रकार उदीरणाके द्वारा लम्बे समयके बाद उदयमें आनेवाले कर्मों को पहले ही भोग लिया जाता है। डॉ० टॉटिया और डॉ० ग्लासनेपने इनको " प्रीमैच्योर रियलाइजेशन” अर्थात् अपरिपक्व प्रत्यक्षीकरण अथवा समयसे पूर्व भोगमें आना कहा है ।
(८) उपशमकरण
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कर्मों के उदयको कुछ समयके लिए रोक देना उपशम कहलाता है ।' कर्मकी इस अवस्थामें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होते। जिस प्रकार राखसे आवृत अग्नि, आवृत अवस्थामें रहते हुए अपना विशेष कार्य नहीं कर सकती, किन्तु आवरणके हटते ही पुन: प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने को समर्थ हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन अवस्थामें रहा हुआ कर्म, उस अवस्थाके समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदयमें आकर फल प्रदान करना प्रारम्भ कर देता है ।"
कतकफल या निर्मलीके डालने से जिस प्रकार मैले पानीका मैल नीचे बैठ जाता है और कुछ समयके लिए स्वच्छ जल ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार कर्मों की उपशमन अवस्थामें परिणामोंकी विशुद्धिके कारण कर्मों की शक्ति अनुद्भूत हो जाती है। कर्मों की यह क्षणिक विश्रान्ति ही उपशम कहलाती है।" उपशम अवस्था यद्यपि क्षणिक होती है, परन्तु इस अवस्थाका मोक्ष मार्ग में अत्यन्त महत्त्व है क्योंकि जितने समयके लिए कमका क्षोभ शान्त हो जाता है, उतने समयमें जीवात्मा समता और आनन्दका अनुभव करता है। यह अल्पकालीन आनन्द ही उसे पुन: पुन: कर्मों से पूर्ण मुक्तिकी प्रेरणा करता रहता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार संस्कारोंके उपशमसे प्राप्त क्षणिक आनन्द व्यक्ति की सकल प्रवृत्तियोंको अपनी ओर उन्मुख कर लेता है, उसकी स्मृति, चित्त पर अंकित हो जाती है। एक बार किसी वस्तुका स्वाद आ जाने पर जिस प्रकार व्यक्ति पुन: पुन: उसकी प्राप्तिके लिए ललचाता है और प्रयत्न करता है, उसी प्रकार उपशमसे प्राप्त रसोन्मुखता, उसे निरन्तर कर्मों को पूर्ण क्षय करने और आत्माभिमुख होने की ओर प्रयत्नशील बनाये रखती है । ६
१. जैन तत्त्व कलिका, छठी कलिका, पृष्ठ १८०
२. (क) टॉटिया स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २६७
(ख) ग्लॉसनेप द डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी
३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४६४
४. जैन साहित्यका वृहद इतिहास, भाग ४, पृ० २५
५. राजवार्तिक, पृ० १००
६.
कर्म रहस्य, पृ० १७५
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