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________________ १०२ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन अधिकारमें है ) परिवर्तन होता है । इस प्रकारसे संक्रमण चार प्रकारका हो जाता है - प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण | संक्रमण प्रत्येक प्रकारके कर्मों में नहीं होता और न ही प्रत्येक अवस्था में होता । संक्रमणके विषयमें कुछ अपवाद हैं १. आठ मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता, संक्रमण केवल उत्तरप्रकृतियों में ही होता है । २ ३. ४. उत्तर प्रकृतियों में भी आयु कर्म की चार प्रकृतियोंका एक दूसरे में संक्रमण नहीं होता । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता, परन्तु इनकी उत्तरप्रकृतियोंका होता है । उदयावलिका, बंधावलिका, उत्कर्षणावलिका और संक्रमणावलिका आदिको प्राप्त कर्मस्कन्धों में संक्रमण नहीं होता । अर्थात् वे कर्म स्कन्ध जो उदय, बन्ध, उत्कर्षण और संक्रमण की सीमामें जा चुके हैं, उनका संक्रमण नहीं होता । " इस प्रकार से कर्मों के अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण रूपमें सूक्ष्म विवेचन अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता, इस कारण इनकी अन्य दर्शनों से तुलना संभव नहीं है । जैन मान्य अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणके सिद्धान्तसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जिस रूपमें कर्मों का बन्ध होता है, कर्म उसी रूपमें फलोन्मुख नहीं होते । वर्तमान पुरुषार्थके आधार पर उनकी स्थिति और शक्तिमें हीनाधिकता होती रहती है । 1 (७) उदीरणा करण ३५ “भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणफलं "५ कर्मों के फल भोगने के कालको उदय कहते हैं और भोगनेके कालसे पहले ही अपक्व कर्मों को पकानेका नाम उदीरणा है । आत्मारामने उदीरणाका विवेचन करते हुए कहा है कि जो कर्म स्कन्ध भविष्यमें उदयमें आने वाले हैं, उन्हें विशिष्ट प्रयत्न, तप, परिषह सहन, त्याग व ध्यान आदि से खींचकर, उदयमें आये हुए कर्म स्कन्धोंके साथ ही भोग १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २५५ २. णत्थि मूल पयडीणं संकमणं... गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४१० ३. दंसणच रित्तमोहे आउचंउक्के णं संकमणं गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४१० - ४. जैन साहित्यका वृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० ११९ ५. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार ३, गाथा ३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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