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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
कों की स्थितिका उत्कर्षण हो जाने पर कर्म जितने कालके लिए बन्धको प्राप्त हुए थे, उसका उल्लंघन करके बहुत कालके पश्चात् उदयमें आते हैं। जिस प्रकार स्थितिमें वृद्धिहो जाती है, उसी प्रकार अनुभाग अर्थात् फलदान शक्तिमें भी वृद्धिहो जाती है। मन्दतम शक्ति वाले संस्कार एक क्षणमें ही तीव्रतम हो जाते
उदाहरणतया किसी जीवने पहले अशुभ कर्मका बन्ध किया, उसके पश्चात् उसकी भावना और अधिक कलुषित हो जाए तब पहले बंधे हुए अशुभकर्मों की स्थिति बढ जायेगी और फल देनेकी शक्ति भी तीव्र हो जायेगी।
उत्कर्षण भी दो प्रकारका होता है - व्याघात और अव्याघात । जिस समय पूर्वसत्तामें स्थित कर्म परमाणुओंसे नवीन बन्ध अधिक हो, परन्तु इस अधिकका प्रमाण एक आवलि (जैन मान्य गणित की एक विशेष गणना) से अधिक न हो, तब वह अवस्था व्याघात दशा कहलाती है। इसके अतिरिक्त शेष उत्कर्षणकी र्निव्याघात अवस्था ही होती है।
उत्कर्षण, कर्मकी उसी अवस्थामें संभव होता है, जबतक कर्म उदयकी सीमामें प्रवेश न करें, सत्ता रूपमें ही हों । उदयकी सीमा में प्रवेश हो जाने पर उत्कर्षण संभव नहीं होता। (६) संक्रमणकरण
“परप्रकृति रूप परिणमनम् संक्रमणम्" अर्थात् पहले बंधी कर्म प्रकृतिका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है।'
कोशकारके शब्दोंमें – “जीवके परिणामोंके वशसे पूर्व बद्धकर्म प्रकृतिका बदलकर, अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है।' कुसंगतिके प्रभावसे सज्जन भी दुर्जन हो जाते हैं और सत्संगतिके प्रभावसे दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं। यह संक्रमणकरण ही है जो अभ्यासके अनुसार व्यक्तिके स्वभावको ही बदल देता है। इस प्रकार शुभ प्रकृति अशुभ रूपमें और अशुभ प्रकृति शुभ रूपमें संक्रमित हो जाती है। यह संक्रमण केवल प्रकृतिमें ही नहीं होता, अपितु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश कर्मों की चारों अवस्थाओंमें (इनका स्पष्ट निर्देश अग्रिम १. कर्म रहस्य, पृ०१७२-१७३ २. कषायपाहुड़, ७, भाग ५, पृ० २४५ ३. कर्मरहस्य, पृ० १७४ ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका गाथा, ४३८ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ०८२
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