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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन उपशम अवस्थामें उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना ये चार करण नहीं होते । अर्थात् उपशमावस्थामें कर्मों की फलोन्मुखताका और कर्मों की अपरिवर्तनीय जातिका अभाव होता है ।
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(९) निधत्तकरण
कर्मकी वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें उदीरणा और संक्रमणका सर्वथा अभाव होता है और कर्मोंका उत्कर्षण और अपकर्षण संभव होता है ।' अर्थात् कर्मों की इस विशेष अवस्थामें आत्माके साथ कर्म इस प्रकार संबंधित हो जाते हैं कि कर्मों में उत्कर्षण और अपकर्षणके अतिरिक्त उदय उदीरणा संभव नहीं होते ।
(१०) निकाचित करण
कर्मकी उस अवस्थाका नाम निकाचना है जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, और उदीरणा ये चारों अवस्थायें असंभव होती हैं । कर्मों की इस अवस्थाको नियति कहा जा सकता है। क्योंकि इस अवस्था में कर्मों का फल उसी रूपमें अवश्य प्राप्त होता है जिस रूपमें बन्ध को प्राप्त हुआ था । इसमें इच्छा, स्वातन्त्र्य या पुरूषार्थ का सर्वथा अभाव रहता है। किसी विशेष कर्म की ही यह अवस्था होती है ।
जैन सम्मत निकाचित कर्मको योग सम्मत नियतविपाकी कर्मके सदृश माना जा सकता है ।
६.
कर्मकी अवस्थाओंका तुलनात्मक विवचेन
जैन दर्शनमें कर्म की अवस्थाओंका जिस प्रकार सूक्ष्मतासे विवेचन किया गया है, इस प्रकार का सूक्ष्म विवेचन अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता । इसी कारण यद्यपि उपरोक्त सभी अवस्थाओं की तुलना संभव नहीं है, परन्तु कुछ अवस्थाओं की तुलना योग दर्शन और वेदान्त दर्शनसे की जा सकती है ।
जैन दर्शनमें जिसे उपशम करण कहा गया है उसे योगदर्शनमें तनु अवस्था कहा जाता है और जैन दर्शन मान्य " संक्रमण करण और उदीरणाको योग दर्शन १. जैन साहित्यका वृहद् इतिहास, भाग ४ पृ० २५
२. निधत्तिकरणद्रव्यं संक्रमणोदययोर्निक्षेप्तुमशक्यम्.
गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४५० ३. निकाचित करणद्रव्यं, उदयावलिसंक्रमोत्कर्षणापकर्षणेषु निक्षेप्तुमशक्यम् गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४५०
४.
५.
जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० २५ योगदर्शन भाष्य, २, १३
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