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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन वर्ण गुणकी भी एक समयमें एक ही पर्याय उपलब्ध होती है। - इस प्रकारसे पुद्गलके चार गुणोंकी बीस पर्याय प्रसिद्ध हैं। पुद्गल द्रव्यमें एक समयमें सात पर्याय व्यक्त रूपसे देखे जा सकते हैं - स्पर्श गुणके चार, रसका एक, गन्धका एक और वर्णका एक ।' ये सात पर्याय भी पुद्गल द्रव्यके स्थूल रूपमें ही दृष्टिगोचर होते हैं, अणु रूप पुद्गलमें मृदु, कठिन, गुरू और लघु गुण नहीं होते । अणु रूप पुद्गलमें दो स्पर्श, एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण केवल पांच पर्याय ही होते हैं । अणुओंके मिलनेसे ही मृदु, कठिन, गुरू, लघु ये चार गुण उत्पन्न होते हैं। ३. पुद्गल का मूर्तत्वगुण उमास्वामीने षड्द्रव्योंका विवेचन करते हुए पुद्गलोंको रूपवान् कहा है - "रूपिण: पुद्गला:” अर्थात् पुद्गल अपनी सभी अवस्थाओं में रूप, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त होते हैं । रूपरसादि इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्तिक कहे जाते हैं, पुद्गलके अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्यमें ये इन्द्रियग्राह्य गुण नहीं पाये जाते, इसीलिये पुद्गलके अतिरिक्त अन्य कोई भी द्रव्य मूर्त नहीं है । इस प्रकार जैन दर्शनमें केवल आकार मात्र को ही नहीं, अपितु इन्द्रियग्राह्य पदार्थको मूर्त या रूपी कहा गया है। श्री सुखलालसंघवीके अनुसार-रूप, मूर्तत्व और मूर्ति ये सब शब्द समान अर्थके ही द्योतक हैं।' ४. कर्म भी मूर्तिक और पौद्गलिक हैं इन्द्रिय ग्राह्य होनेके कारण कर्मको भी मूर्तिक और पौद्गलिक माना गया है, क्योंकि कर्मका फल स्पर्शन आदि मूर्तिक इन्द्रियोंके द्वारा सुख दु:ख आदि फलके रूपमें प्राप्त होता है । कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है - जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुजदे णियदं । जीवेण सुहदुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ॥' अर्थात् कर्मोंके सुख दु:ख रूप फलको उत्पन्न करनेवाले इष्टानिष्ट पदार्थ मूर्त हैं और मूर्तिक इन्द्रियोंके द्वारा ही भोगे जाते हैं, इसीलिये कर्ममूर्त हैं और पुद्गलमय हैं। कर्मों के १. पदार्थ विज्ञान, पृ० १९९ २. “एय रस वण्ण गन्धं दो फासं"....पंचास्तिकाय, गाथा ८ ३. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५, सूत्र ४ ४. तत्त्वार्थसूत्र विवेचना, पृ० ११७ ५. पंचास्तिकाय, गाथा १३३ ६. “कम्मं सव्वं पुग्गलमर्य" समयसार, गाथा ४५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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