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________________ १४६ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन है । गुण होने पर भी दूसरोंको अच्छा न लगे ऐसे कर्मको दुर्भग नामकर्म कहते हैं कटु स्वर उत्पन्न कराने वाला कर्म दुस्वर नामकर्म कहलाता है । संसारमें जीवका अपयश कराने वाला कर्म अयश: कीर्ति नामकर्म है। ७. गोत्र कर्म गोम्मटसारके अनुसार सन्तान क्रमसे चले आने वाले जीवके आचरणको गोत्र संज्ञा दी गई है । ' जैसे कुम्हार छोटे अथवा बड़े घटोंको बनाता है वैसे ही गोत्र कर्म जीवको उच्च अथवा नीच कुलमें उत्पन्न करता है । गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । गोत्र कर्मके भेद व बन्धके कारण गोत्र कर्मकी उच्च गोत्र और नीच गोत्रकी दो प्रकृतियाँ हैं । जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञानादिकी विशेषता होनेपर भी बड़प्पन अथवा अहंकारकी प्रतीति न करने वाला, सरल, विनयी और भस्मसे ढकी अग्निकी भाँति अपने गुणों और दूसरे के दोषों को छिपाने वाला जीव उच्च गोत्रका बन्ध करता है । जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञानादिमें अपने को उच्च समझकर, अहंकार तथा माया युक्त प्रवृत्ति करने वाला और भस्मसे ढकी अग्निकी भाँति अपने दोषों और दूसरे के गुणों को आच्छादन करने वाला जीव नीच गोत्रका बन्ध करता है । " महत्त्वशाली, लोकपूजित कुलों में उत्पन्न कराने वाली प्रकृति उच्च गोत्र है और निन्दित, दरिद्र और दु:खाकुल कुलोंमें उत्पन्न कराने वाली प्रकृति नीच गोत्र है । ५ ८ क. अन्तराय कर्म अन्तराय शब्दका अर्थ विघ्न है, अन्तर अर्थात् मध्यमें, विघ्न बनकर आने वाला कर्म " अन्तराय कर्म" कहलाता है।' यह कर्म भण्डारी की तरह जीवके दान, लाभ आदि कार्यों में बाधक बन जाता है, ' अर्थात् जिस प्रकार भंडारमें अपार सम्पत्ति होते हुए भी भंडारी उसके देनेमें विघ्न बनता है, वैसे ही जीवके पास अनन्त दान, लाभादि की शक्ति होते हुए भी अन्तराय कर्म उस शक्तिके १. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३; (ख) सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९२ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १३ २. ३. वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ ४. (क) राजवार्तिक, पृ० ५३१; (ख) भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ० ६५३ ५. राजवार्तिक, पृ० ५३१ ६. धवला, १३, ५, पृ० ३८९ ७. भाण्डागारिकवद्दानादिविघ्नकरणतेति, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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