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कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद उपयोगमें बाधक बनता है। अन्तराय कर्मके भेद और बन्धके कारण
अन्तराय कर्मके पांच भेद कहे गये हैं – “दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्" दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । दानान्तरायके कारण जीव देने की इच्छा रखते हुए भी दान नहीं दे सकता, लाभान्तरायके कारण किसी भी प्रकारकी वस्तुको प्राप्त करने की इच्छा होते हुए भी जीव उसे प्राप्त नहीं कर सकता, भोगान्तरायके कारण जीव भोगने की इच्छा रखते हुए भी भोग नहीं सकता। अलंकारादि उपभोगके साधन होते हुए भी उनको भोग न पाना उपभोगान्तराय है और उत्साहित होने की इच्छा रखते हुए भी उत्साहित न हो पाना वीर्यान्तराय है। वीर्य एक प्रकारकी शक्ति विशेष होती है। अन्तराय कर्म उस शक्तिमें बाधक हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति जानता हुआ भी करने योग्य कार्य नहीं कर पाता । दूसरों के दानलाभादि कार्यों में विध्न डालने वाला जीव ही अन्तराय कर्मका बन्ध करके स्वयं दान लाभादिसे वंचित हो जाता है । २. स्थिति बन्ध
कर्मों का विभाजन उनके स्थिति कालके आधारपर भी किया जा सकता है | कुछ कर्म क्षण भरमें ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ कर्म हजारों वर्षका समय लेते हैं। यह समय परिमाण ही स्थितिबन्ध है। स्थितिका अर्थ है अवस्थान काल, यह गतिसे विपरीत अर्थका वाचक है | जीवके रागादि भावोंका निमित्त पाकर, उपरोक्त अष्टविध कर्मों में परिणत वर्गणायें जितने समय तक जीवके साथ बद्ध रहती हैं, उतने समयको ही, उस कर्मकी स्थिति कहा जाता है । पूज्यपादजीने इसका उदाहरण देते हुए कहा है - जैसे गाय, भैंस, बकरी आदिके दूधका माधुर्य एक निश्चित काल तक ही रहता है, उसके पश्चात् वह विकृत होने लगता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है । यह निश्चित काल ही कर्मों का स्थिति बन्ध कहलाता है । धवलाकारने स्थितिबन्ध की परिभाषा करते हुए कहा है कि मन-वचन-कायकी क्रियाके
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१. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १३ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९४ ३. हर्ट ऑफ जैनिज़म , पृ० १६२ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०२२ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९
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