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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अर्थात् सम्यक्त्व रूपी रत्नपर्वतके शिखरसे च्युत मिथ्यात्व रूपी भूमिके सम्मुख, सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए।
इस गाथासे स्पष्ट है कि सासादन गुणस्थान, प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानकी अपेक्षासे विकासात्मक कहा जा सकता है, परन्तु यथार्थमें यह आत्माकी पतनोन्मुख अवस्थाका द्योतक है। कोई भी आत्मा प्रथम गुणस्थानसे विकास करके यहाँ नहीं आता, अपितु ऊपर की विकासात्मक श्रेणियों से पतित होकर, पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त होने से पूर्व, इस गुणस्थानको प्राप्त करता है।
राजवार्तिककारने सासादन सम्यग्दृष्टिका वर्णन करते हुए कहा है- “तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनन्तानुबन्धी कषायोदयकलुषीकृतान्तरात्मा जीव: सासादन सम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते" अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीवमें मिथ्यादर्शनके उदयका अभाव होता है और अनन्त काल तक रहने वाले तीव्रतम कषायों (अनन्तानुबन्धीचतुष्क)२ से उसका अन्तरात्मा कलुषित होता है । वस्तुत: तीव्रतम कषायका जागृत होना ही जीवके पतनका कारण होता है, जो इसे सम्यक्त्वके शिखरसे मिथ्यात्वकी ओर अभिमुख कर देता है । वास्तवमें इस गुणस्थान में गिरने वाले जीवका सम्यक्त्व दृढ़ नहीं होता, ऐसे सम्यक्त्व को जैन दर्शनमें उपशम सम्यक्त्व कहा जाता है। श्रीमती स्टीवन्सनने उपशमसम्यक्त्वकी तुलना ऐसी आगसे की है, जो भस्म के नीचे छिपी हुयी है, इसी प्रकार जीवके मिथ्याकर्म, सम्यक् कर्मके प्रभावसे कभी कभी लम्बे समय तक नियन्त्रित रहते हैं, परन्तु भस्ममें छिपी आगकी तरह किसी भी समय प्रगट अवश्य हो सकते हैं। उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त जीवके अनन्तानुबन्धी कषाय कुछ समयके लिए प्रगट नहीं होते, परन्तु जब भी वह प्रगट होते हैं, तो वह पतित होकर सासादन गुणस्थानमें आ जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वका आसादन अर्थात् अवहेलना करनेसे इस गुणस्थानकी प्राप्ति होती है। इसी कारण इसे सासादन कहा जाता है और मिथ्यादर्शनसे अभी दूर है इसी कारण सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ।'
बृहत्कल्पभाष्यमें इस गुणस्थानको तीन उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है। १. एक व्यक्ति खीर का भोजन करता है और उसके पश्चात् उसे किसी १. राजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, पृ० ५८८ २. पूर्व निर्दिष्ट अध्याय ५ ३. हर्ट ऑफ जैनिजम, पृ० १८६
गलॉसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७७ । ५. वृहत् कल्पभाष्य, भाग १, गाथा १२६, १२८ उद्धृत जैन एथिक्स पृ० २१३
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