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कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था
१९९ कारणवश वमन हो जाता है, वमन के पश्चात् भी उसे पूर्व मिठासका आस्वादन रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वको छोड़ने के पश्चात् भी किंचित आस्वादन रहने के कारण, सास्वादन नाम दिया गया है। २. आकाशसे पृथ्वीपर गिरने वाला व्यक्ति, यद्यपि ऊपरके स्वादको छोड चुका है, परन्तु पृथ्वी पर अभी नहीं पहुंचा । यह मध्यकी अवस्था ही सासादन कही जाती है। ३. मिष्ठान्न भोजन करने के पश्चात सोनेको गया हुआ व्यक्ति, जब तक गहरी निद्रामें नहीं चला जाता, तब तक भोजनका आस्वादन करता रहता है। इसी प्रकार सम्यक् अथवा सत् से मिथ्यात्व अथवा तमकी ओर जाने वाला जीव, जब तक गाढ़ तममें नहीं चला जाता तब तक सम्यक्का आस्वादन करता रहता है।
उपरोक्त तथ्योंसे स्पष्ट हो जाता है कि सासादन गुणस्थान मध्यकी स्थिति है और इसका समय बहुत कम होता है । डॉ० ग्लॉसनेप ने कहा है कि कोई भी जीव इस गुणस्थान में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलीपर्यन्त ही रहता है। आवली जैन दर्शन द्वारा मान्य गणितका एक सैद्धान्तिक काल प्रमाण है जो क्षण भरकी अल्पतम अवस्थाका सूचक है ।
इस गुणस्थानसे आगे निम्न कर्म प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तीन निद्रायें (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला) चार संहनन (वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित) चार संस्थान (न्यग्रोध परिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और वामन) तिर्यंच गति, तिर्यंच आयु, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, उद्योत, नीच गोत्र, स्त्रीवेद, अप्रशस्त विहायोगति । ३
इस गुणस्थान से आगे एक से चार इन्द्रिय, स्थावर शरीर, चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन नौ प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणा नहीं होती। ३. मिश्र गुणस्थान (सम्यक् मिथ्यादृष्टि)--
मिश्र गुणस्थानकी परिभाषा करते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें कहा गया है कि दही व गुड़के मिश्रित स्वादके समान, सम्यक् और मिथ्या मिश्रित श्रद्धा और ज्ञानको धारण करनेकी अवस्था विशेष ही सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाती है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें इस गुणस्थान का लक्षण इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया गया है
गलासनेप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ०२१६ ३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड. गाथा ९६
गलैसनैप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७८ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ३१८
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