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________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन दहिगुड़मिव वा मिस्सं पुह भावं णेह कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सय भावो सम्मामिच्छोत्ति णादव्यो ।' तात्पर्य यह है कि समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि वाला जीव ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाता है। यह एक अनिश्चयकी अवस्था होती है, जिसमें जीव सत्य और असत्यके मध्य ही झूलता रहता है, न वह सत्यकी ओर उन्मुख हो पाता है और न ही असत्यको स्वीकार कर पाता है। सम्यकबोधको प्राप्त चतर्थ गुणस्थानवी जीवों में जब सम्यक्बोध के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, उसी समय वे पतित होकर, इस अनिश्चयकी अवस्था को प्राप्त होते हैं, प्रथम गुणस्थानवी जीव, जब सम्यक् बोध की अवस्था की ओर उन्मुख होता है, उस समय भी मिथ्यात्वको त्यागने और सम्यक् को ग्रहण करने से पहले जीव क्षण भरके लिए, इस अनिश्चयात्मक अवस्थाको प्राप्त होता है। श्री जिनेन्द्र वर्गीके शब्दोंमें सम्यम्त्वसे गिरते समय अथवा मिथ्यात्व से चढ़ते समय अल्प समय के लिए इस अवस्थाका वेदन होना सम्भव है ।२ ___ इस प्रकार इस श्रेणीमें जीव मिथ्यात्व गुणस्थान या उपरिम चतुर्थ गुणस्थानसे आता है । अनिश्चयात्मक अवस्थाके समाप्त होने पर यदि जीव मिथ्याधारणाको अपनाता है तो नीचेके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है और यदि सम्यक् धारणाको अपनाता है, तो ऊपरके सम्यक् बोध वाले चतुर्थ गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है । २ इस तथ्य को डॉ० ग्लैस्नैप ने भी इसी रूपमें स्पष्ट किया है । वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इस गुणस्थान से जीव प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है, इनके अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों में इस अवस्था वाला जीव नहीं जा सकता। मिश्रगुणस्थानकी तीन विशेषतायें हैं जो निम्न गाथामें कही गयी हैं-- सो संजमं ण गिण्हदि देससंजमं वा ण बंधदे आउं। सम्मं वा मिच्छं वा परिवज्जिय मरदि णियमेण ।।६ . १. २. ३. ४. . गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ३१७ टॉटिया, स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ०२७७ गलैसनैप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७८ तस्स मिच्छ्त्तसम्मत्तस हिदासंजदगुणे मोत्तूण गुणंतरगमनाभावा षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक ४, खण्ड १, सूत्र ९, पृ० ३४३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २३ ६. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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