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कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था
२०१ अर्थात् १. मिश्र गुणस्थान में कर्मों का ऐसा आवरण पड़ा होता है कि जीव किसी प्रकारसे पूर्णरूपेण या अल्प मात्रामें भी संयम करने में समर्थ नहीं होता। २. यह गुणस्थान अत्यल्प समयके लिए होता है और इसमें मिश्रित भाव होते हैं। इसी कारण भावी नरक, मनुष्य, तिथंच और देव इन चारों आयुकर्मका बन्ध जीव इस मिश्रित अवस्थामें नहीं कर सकता । ३. इस अवस्थामें जीव, मरणको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मिश्रभावमें मरण सम्भव नहीं है । मिश्र परिणामको त्याग कर मिथ्यादृष्टि अथवा अविरतसम्यकदृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करने के पश्चात् ही जीव मरण को प्राप्त होता है |
डॉ० कलघाटकीने इस सन्दर्भ में आधुनिक मे व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि मिश्रगुणस्थानकी अवस्था में मृत्यु सम्भव ही नहीं होती, क्योंकि मृत्युके समय आत्मामें संघर्षकी शक्ति नहीं होती। इसी कारण मृत्युसे पूर्व ही वह संघर्ष समाप्त हो जाता है और आत्मा मिथ्या या सम्यक् एक दृष्टिकोण अपना लेता है।
मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवकी अनिश्चयात्मक अवस्था गीताके संशयात्मा जीवसे कुछ भिन्न होती है। मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव यद्यपि संशयात्मा जीवके समान भ्रम अर्थात् संशयकी स्थिति में ही होता है और सम्यक, तथा मिथ्याका निर्धारण नहीं कर पाता, परन्तु गीता में कहा गया है “संशयात्मा विनश्यति २ अर्थात् संशयात्मा नष्ट हो जाता है। परन्तु मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवका संशय यदि मिथ्यात्व रूप परिणमित हो तभी वह नष्ट होता है, अन्यथा सम्यक् रूपमें परिणमित होने पर वह उपरिम सोपानपर भी अग्रसर हो सकता है, क्योंकि वासनात्मक एवं सांसारिक प्रवृत्तियों का पक्ष लेने वाला जीव ही मिथ्यात्वमें गिर कर नष्ट होता है, परन्तु त्यागमय नैतिक मूल्योंकी ओर उन्मुख जीव उन्नत अवस्थाको ही प्राप्त करता है।
मोहनीय कर्मकी दर्शन मोहकी अवस्थामें ही मिश्रभावोंका उदय होता है, जिसे मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं जिसका वर्णन मोहनीय कर्म में किया गया है। इस गुणस्थान के पश्चात् मिश्रमोहनीय कर्म उदय और उदीरणामें नहीं आता।'
सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन पृ० ८८ उद्धृत, वैशाली इंस्टीच्यूट,
रिसर्च, बुलेटिन नं०३ २. गीता, अध्याय ४, श्लोक ४० ३. पूर्व निर्दिष्ट, कर्मबन्ध अधिकार, मोहनीय कर्म ___ गलैसनैप डॉक्टराईन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०७९
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