SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन और निर्जराके लिए पुरूषार्थ करनेका विशेष समय कौन सा होता है, इसका निर्देशन करते हुए द्रव्य संग्रहमें कहा गया है - बुद्धिमान पुरूष शत्रुकी निर्बल अवस्थाको देखकर यदि मारनेका पुरूषार्थ करे तो उस समय में किया गया पुरूषार्थ कार्यकारी हो जाता है । उसी प्रकार स्थिति और अनुभाग बन्ध जिस समय मन्द शक्तिसे उदयमें आ रहे हों, उस समय जीव निर्मल भावना रूपी खड्गके द्वारा कर्मशत्रुओंका हनन कर सकता है। यदि यह मन्द उदयका समय निकल जाता है, तो व्यक्ति पुन: संस्कारोंके प्रभाववश पुरूषार्थ करने में असमर्थ हो जाता है। अत: कर्मों के मन्द उदयमें ही जीव संवर निर्जराके पथपर चलने में समर्थ हो सकता है और यह अवसर अनेक बार प्राप्त हुआ करता है। प्रबुद्ध प्राणी इस अवसरका लाभ उठाकर अपनेको मुक्ति पथ पर आरूढ़ कर लेते हैं । ___ कर्मों की श्रृंखलाका अथवा संसार चक्रका अथवा दु:खोंका निवारण करनेके लिए, प्राय: सभी दर्शनोंने मुक्तिके मार्गको किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । विभिन्न दर्शनों द्वारा मान्य मुक्तिके मार्गका विवेचन किया जाना इष्ट है - २. विभिन्न दर्शनोंमें मुक्तिके मार्गका स्वरूपक. बौद्ध दर्शनमें मुक्तिका मार्ग बौद्ध दर्शनका चतुर्थ आर्य सत्य दु:ख निरोध मार्ग है । बौद्ध दर्शन में निम्न अष्टौगिक मार्गके द्वारा दु:ख निरोध अर्थात् मुक्तिके मार्ग का कथन किया गया है-१. सम्यक्दृष्टि २. सम्यक् संकल्प ३. सम्यक् वाक् ४. सम्यक् कर्मान्त ५. सम्यक् आजीविका ६. सम्यक् व्यायाम ७. सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। इस अष्टांगिक मार्गको तीन भेदोंमें गर्भित किया जा सकता है - सम्यक् दृष्टि और सम्यक् संकल्प प्रज्ञाके अन्तर्गत हैं, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम ये चार शीलके अन्तर्गत हैं और सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि, समाधिके अन्तर्गत हैं । इस प्रकार प्रज्ञा, शील और समाधिको कर्म मुक्तिका मार्ग कहा है। अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको शीलमें ही गर्भित किया गया है और समाधिके उत्तरोत्तर विकासको प्राप्त होने वाले तीन भेद किये गये हैं - श्रुतमयी समाधि, चिन्तमयी समाधि और समाधिजन्य निश्चय । ये तीनों सोपान वेदान्त मान्य श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे समानता रखते हैं। १. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३७ २. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, १९८०, पृ० १०१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy