________________
कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद वेदनीय कर्मके बन्धके कारण
साता वेदनीय कर्मका कारण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - “भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग: क्षान्ति शौचमिति सद्वेद्यस्य ।। सभी प्राणियोंपर अनुकम्पा रखनेसे, व्रतियों की सेवा करनेसे, दान देनेसे, बाल और वृद्ध तपस्वियोंकी सेवा करनेसे, हृदयमें शान्ति और पवित्रता रखनेसे और संयम करनेसे साता वेदनीय कर्मका बन्ध होता है । इसके विपरीत आचरणसे दु:खके कारणभूत असाता वेदनीयकर्मका बन्ध होता है । असाताके फलस्वरूप देह हमेशा रोगपीड़ित रहता है और बुद्धि व शुभ क्रियायें सब नष्ट हो जाती हैं, वह प्राणी अपने हितके उद्योगमें तत्पर नहीं हो सकता। इस प्रकार सुखके कारणभूत कार्यों का सम्पादन 'साता वेदनीय' और दु:खके कारणभूत कार्यों का सम्पादन 'असाता वेदनीय' कर्म के बन्धका कारण होता है। वेदनीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ
- वेदनीय कर्म दो प्रकारका होता है - सुखका कारणभूत सातावेदनीय कर्म और दु:खका कारणभूत असातावेदनीय कर्म है । विशिष्ट देव आदि गतियों में इष्ट सामग्रीके सन्निधानके कारण जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक सुखोंका अनुभव होता है वह "सातावेदनीय" है और जिसके फलस्वरूप नरकादि गतियोंमें अनिष्ट सामग्रीके सन्निधानके कारण, अनेक प्रकारके अतिदु:सह मानसिक और शारीरिक दु:खों का अनुभव होता है, वह "असातावेदनीय" है ।' ४. मोहनीय कर्म- जीवको जो मोहित करता है या जिसके द्वारा जीव मोहा जाता है, वह मोहनीय कर्म है । धतूरा, मदिरा, कोदों आदिका सेवन करनेसे जैसे व्यक्ति मूर्छित सा हो जाता है, उसमें इष्ट- अनिष्ट, हेय-उपादेयको जाननेका विवेक नहीं रहता, उसी प्रकार मोहनीय कर्म प्राणियों को इस प्रकार मोहित कर देता है कि जीवको पदार्थका यथार्थ बोध होने पर भी वह तदनुसार कार्य नहीं कर पाता। १. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८०१ ३. सदसवेद्ये तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र ८ ४. राजवार्तिक, पृ०५७३ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८० ६. “मद्यपानवद्धेयोपादेयविचार विकलता” बृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेवटीका, गाथा ३३
ه
م
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org