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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ६. निद्रा-निद्रा-कर्मके जिस उदयसे ऐसी नींद आये कि सोया हुआ जीव जोरसे आवाज देने या हिलानेपर भी कठिनतासे जागे उस कर्मको निद्रा-निद्रा कहते हैं। ७. प्रचला- कर्मके जिस उदयसे ऐसी नींद आये कि जीव खड़े-खड़े या बैठे बैठे ही सो जावे उसे प्रचला कहते हैं।' ८. प्रचला-प्रचला- प्रचला-प्रचलाके उदयसे पुरूष मुखसे लार बहाता है और उसके हस्तपादादि चलायमान हो जाते हैं। ९. स्त्यानगृद्धि-स्त्यानगृद्धि कर्मके उदयसे जीव दिनमें अथवा रात में सोचे हुए कार्यको नींदकी अवस्थामें ही कर लेता है और उसको कार्यकी स्मृति भी नहीं रहती। कर्मग्रन्थके अनुसार इस प्रगाढ़ निद्राकी अवस्थामें जीवको अर्धचक्रीश्वर अर्थात् वासुदेवकी शक्तिका आधा बल प्राप्त होता है । ३. वेदनीय कर्म
जीवको जो कर्म सुख अथवा दु:खका वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है।' मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के वशसे कर्म पर्यायमें परिणत और जीवके साथ समवाय संबंधको प्राप्त सुख दु:खका अनुभव करनेवाले पुद्गल स्कन्ध ही “वेदनीय" नामसे कहे जाते हैं। इस कर्मके फलस्वरूप जीवके अव्याबाध सुख अर्थात् अतीन्द्रिय सुखका घात होता है और जीव भौतिक सुख तथा दु:खमें ही उलझा रहता है। ये आकुलता रूप होते हैं और आत्मिक आल्हाद्, शान्ति, आनन्द तथा निराकुल अतीन्द्रिय सुखसे विपरीत होते हैं । वेदनीय कर्मके दृष्टान्तमें मधुलिप्त खड्गका उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार शहद लिपटी तलवारकी धार को चाटनेसे पहले अल्प सुख और फिर अधिक दु:ख होता है, वैसे ही पौद्गलिक सुखमें दु:खोंकी अधिकता होती है। १. (क.) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा २३-२४
(ख.) सुहपड़िबोहा निद्दा, निद्दा-निदा य दुक्खपड़िबोहा पयला ठिओवविठ्ठस्स पयलपयला य
चंकमओ कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा दो २. “पयलापयलुदयेण यवहेदिलाला चलति अंगाई,गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २४, पृ०१६ ३. गोम्म्टसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्व प्रदीपिका, गाथा २३ ४. थीणद्धी अद्धचक्किअद्धबला, कर्मग्रन्थ भाग १, गाथा १२ ५. वेद्यस्यसदसल्लक्षणस्य सुखदु:ख सम्वेदनम्, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८०
षट्खण्डागम, धवला,६,भाग १,पृ०१० ७. "मधुलिप्तखड्गधारास्वादनवदल्पसुखबहुदु:खोत्पादकता” वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका,
गाथा ३३.
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