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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शरीरको रंग प्रदानकरने वाला कर्म वर्ण नामकर्म कहलाता है । १. कृष्ण २३ नील ३. रक्त ४.पीत और ५. श्वेतके भेदसे वर्ण पांच प्रकारका होता है । गन्ध नामकर्म से १. सुगन्ध तथा २. दुर्गन्धका बोध होता है। १. तिक्त २. कटु ३. अम्ल ४. मधुर और ५. कसेला, रस भेद उत्पन्न करने वाला, रस नामकर्म है। १. कठोर २. मृदु ३. गुरू ४. लघु ५. शीत ६. उष्ण ७. स्निग्ध और ८. रूक्ष भेदको उत्पन्न करने वाला अष्ट प्रकारका स्पर्श नामकर्म है।'
जीवके देह छोड़नेके पश्चात् परन्तु दूसरे जन्मसे पूर्व, विग्रह गतिमें, पूर्व शरीरका आकार प्रदानकरने वाले कर्मको आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं। आनुपूर्वी नामक कर्मशक्तिकी सहायतासे ही जीव मृत्युके पश्चात् अगले भवमें गमन करता है। गतियों के आधार पर यह चार प्रकारका होता है - १. नरकगत्यानुपूर्वी २. तियंचगत्यानुपूर्वी ३. मनुष्यगत्यानुपूर्वी और ४. देवगत्यानुपूर्वी । आकाशमें गमन करने वाले नामकर्मको विहायोगति नामकर्म कहते हैं । मनुष्य तथा मोर आदिकी चालके समान शुभ गमनको १. प्रशस्त विहायोगति कहते हैं और ऊँटकी चालके समान अशुभ गमनको २. अप्रशस्त विहायोगति कहते हैं।' २. प्रत्येक प्रकृतियाँ
नामकर्मकी कुछ प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो पृथक्-पृथक् ही अपना अस्तित्व रखती हैं, इसीलिए उन्हें “प्रत्येक” संज्ञा दे दी गई है। ये प्रकृतियाँ संख्यामें आठ हैं -परजीवोंका घात करने वाले तीक्ष्ण सींग और नख जैसे अवयव उत्पन्न करने वाले कर्मको परघात नामकर्म कहते हैं, इसके विपरीत अपना ही उपघात करने वाले बड़े सींग स्थूलोदर जैसे अवयव उत्पन्न करने वाले कर्मको उपघात नामकर्म कहते हैं, श्वासोच्छवास करने वाला कर्म उच्छवास कहलाता है, आतप युक्त शरीरका निर्माण करने वाला कर्म आतप कहलाता है, जैसे सूर्यका बिम्ब और अग्नि । चन्द्रमावत् शीतल शरीर बनाने वाला उद्योत नाम कर्म है, जो कर्म शरीरको लोहेके गोले की भाँति भारी और आककी रूईकी तरह हल्का न होने दे, ऐसे कर्मको अगुरूलघु नामकर्म कहते हैं । शरीरके अंगोपांगकी समुचित रूपसे
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१. राजवार्तिक, पृ०५१७ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९० ३. षट्खण्डागम ६/१सूत्र ४१ ४. गोम्टसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३
षट्खण्डागम, धवला ६/१, पृ०५९ षट्खण्डागम६/१ सूत्र ४१
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