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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ही बिना फल दिये नष्ट हो जाता है। इसकी स्थिति एक समय मात्रकी होती है।' इस प्रकार कषाय सहित मन, वचन तथा कायकी क्रियायें साम्परायिक और कषाय रहित मन, वचन, काय की क्रियायें ईर्यापथ कहलाती हैं, जो क्रमश:संसार तथा मोक्षका कारण होती हैं, मैत्र्युपनिषदमें भी इसी भावको निर्दिष्ट किया गया है।
__मिथ्यात्वसे लेकर योग तकके इन पांच कारणों में उत्तरबन्ध हेतु होनेपर पूर्वबन्ध हेतु हो यान भी हो, परन्तु जहाँ पूर्व बन्धके कारण होंगे, वहाँ उत्तर कारण अवश्य होंगे। जैसे योग होने पर मिथ्यात्व, अविरति आदि हों या न भी हों, परन्तु मिथ्यात्व होनेपर अविरति, प्रमाद कषाय और योग अवश्य होंगे। बन्धके इन कारणोंको कैसे नष्ट किया जाता है इसका वर्णन अग्रिम अध्यायों में किया जायेगा। २. कर्मबन्धके भेद प्रभेद
जैन दर्शनमें कर्म बन्धके भेदोंका विवेचन अति सूक्ष्म दृष्टिसे किया गया है। जैसे एक आम्रफल स्वभावकी दृष्टिसे मीठा या खट्टा हो सकता है, रस की दृष्टिसे कम या अधिक रस वाला हो सकता है, काल की दृष्टिसे एक या दो दिन रह सकता है, इसके पश्चात् सड़ने लगता है और वजनकी दृष्टिसे भारी अथवा हल्का हो सकता है। इस प्रकार आमका स्वभाव, रस, स्थिति और घनता आदिका सम्मिलित रूप ही आम है । आमकी तरह ही जीवके साथ बन्धको प्राप्त हुए कोका बन्ध भी चार प्रकारका होता है - कर्मों के स्वभाव, कार्य तथा गुणोंको बताने वाला बन्ध "प्रकृति बन्ध" कर्मों के कालका निर्धारण करने वाला बन्ध “स्थिति बन्ध" कर्मों की विपाक शक्तिको दर्शाने वाला वन्ध अनुभाग बन्ध" और कर्मों के पिण्डत्वको दर्शाने वाला बन्ध प्रदेश बन्ध' कहलाता है ।
उमास्वामीने सूत्रमें इन चारों भेदोंका निर्देशन करते हुए कहा है - "प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधय:"६ इन चारोंमें से प्रकृति और प्रदेश बन्ध, मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको जैन दर्शनमें योग कहा जाता है। स्थिति और अनुभाग बन्ध कषायों अर्थात् कलुषित परिणामोंसे होते हैं । नेमिचन्द्राचार्यने कहा है – “जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३६१ २. सकषायाकषाययो: साम्परायिकर्यापथयो: तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र ४ ३. मैत्र्युपनिषद्, अध्याय ६, श्लोक २४ ४. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९४
The Jaina divide Karma according to its nature, duration essence and
content. Mrs. Stevenson, The Heart of Jainism P. 176 ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय८, सूत्र ३ ७. “कायवाड्.मन: कर्मयोग:" तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १
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