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कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
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कसायदो होति" "
कषाय सहित किया गया शुभ या अशुभ कर्म ही स्थिति तथा अनुभाग बन्ध की वृद्धिकरता है और संसारका कारण होता है, परन्तु कषाय रहित किया गया कर्म स्थिति और अनुभाग बन्धकी वृद्धि नहीं करता । संसारकी वृद्धि करने वाले कषाय सहित कर्मको “साम्परायिक" और संसारकी वृद्धि न करने वाले कषाय रहित कर्मको “ईर्यापथ” कर्म कहा जाता है “सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो: "२ ईर्यापथ कर्मकी तुलना गीताके निष्काम कर्म से की जा सकती है, क्योंकि ईर्यापथ कर्म में भी निष्काम कर्मके समान ही इच्छाका अभाव होता है, जिसमें पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती । " उपरोक्त निर्दिष्ट चतुर्विध बन्धोंका विस्तृत विवेचन इष्ट है. (१) प्रकृतिबन्ध -
प्रकृतिका अर्थ है स्वभाव । ' जैसे नीमकी प्रकृति कटु है और गुड़की प्रकृति मधुर है । अग्नि स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करती है, वायुका स्वभाव तिर्यग्गमन करना है और जलका स्वभाव अधोगमन करना है। इसी प्रकार अन्य कारणों से निरपेक्ष कर्मों का जो मूल स्वभाव है, वह प्रकृति बन्ध कहलाता है । प्रकृति, शील और स्वभाव ये सब एकार्थ वाची शब्द हैं । ६
श्रीमती स्टीवन्सनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावके अनुसार कर्मों की रचना करता है । यदि कोई स्वभावसे कटु है, तो कटु कर्मको ही संचित करेगा और मधुर स्वभाव वाला मधुर कर्मों को ही संचित करेगा । बन्धकी इस कोटिको ही प्रकृति बन्ध कहते हैं । "
कर्मका स्वभाव एक प्रकारका ही नहीं होता अपितु परिणामों तथा मनवचन- कायकी क्रियाओंकी अनेकताके कारण अनेक प्रकारका होता है । जीव जैसा कर्म करता है, उसके निमित्तसे वैसी कर्म प्रकृतियाँ कार्मण शरीरके साथ बन्धको प्राप्त हो जाती हैं। एक ही बाह्य शरीर, जिस प्रकार देखने, चलने, ग्रहण करने आदिकी विभिन्न शक्तियों से युक्त होता है, इसी प्रकार एक ही कार्मण शरीर
१. द्रव्यसंग्रह, गाथा ३३
२. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र ४
३. कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ गीता, अध्याय २, श्लोक ५१
४. अनंतसंसारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो” षटखण्डागम, धवला १३, भाग ४, पृ० ५१
५. “पयड़ी एत्थ सहावो” पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार ४, गाथा ५१४
६. १. पयड़ी सील सहाव, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २
७.
श्रीमती स्टीवनसन, हर्ट ऑफ जेनिज़म, पृ० १६२
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