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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
I
भेदसे दो प्रकारका है । जो प्रकृति अपनी प्रकृति रूप होकर ही उदयमें आती है, उसे स्वमुखोदय कहते हैं - जैसे क्रोधका क्रोध रूपमें ही उदय होना । परन्तु कभी कभी किसी विशेष स्वार्थ के कारण क्रोध, क्रोध रूपमें ही उदयमें न आकर मान या माया रूपसे भी उदयमें आ जाता है । इस प्रकार संक्रमित होकर उदयमें आनेको " परमुखोदय" कहते हैं । '
उदयमें भेदकी अपेक्षा सभी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और अभेदकी अपेक्षा चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पांच बन्धन और पांच संघात, ये छब्बीस प्रकृतियाँ छोडकर शेष एक सौ बाईस प्रकृतियाँ उदयके योग्य हैं ।
(३) सत्त्वकरण
जीवसे संबद्ध हुए कर्म स्कन्ध, तत्काल फल नहीं देते । बन्धने के दूसरे समयसे लेकर फल देनेके पहले समय तक वे कर्म आत्माके साथ अस्तित्व रूपमें रहते हैं । कर्मों की उस अवस्थाको सत्ता या सत्त्व कहा जाता है । जैसे धान्यको संग्रह कर लिया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर उस संग्रहमें से थोड़ा-थोड़ा निकाला जाता है | जब तक वह बाहर नहीं निकलता तब तक वह संग्रह निधि रूपमें रहता है । धान्यके संग्रहके समान ही पूर्व संचित कर्म के आत्मामें अवस्थित रहनेको सत्त्व कहते हैं । "
सत्तामें रहने वाले कर्मकी तुलना, अन्य दर्शनोंमें कहे गये संचित कर्म से की जा सकती है । ये कर्म जीवके परिणामोंको किसी भी प्रकारसे प्रभावित नहीं करते। आठ कर्मों की सर्व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ जो बन्धके भेद प्रकरणमें कही गई हैं, सत्ताकी हैं । इनका निम्न गाथामें निर्देश किया गया है
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरों कमेण ते णउदी । दोणिय पंच य भणिया एदाओ सत्त पयड़ीओ ॥ ५
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सत्त्वके दो भेद किये जा सकते हैं “ उत्पन्न स्थान सत्त्व" और "स्वस्थान सत्त्व ।” अपकर्षण आदिके द्वारा अन्य प्रकृति रूपसे किया गया सत्त्व, उत्पन्न स्थान सत्त्व कहलाता है और बिना अन्य प्रकृति रूप हुआ सत्त्व स्वस्थान सत्त्व
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१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३४२
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३७
३.
“ विदियसमयप्प हुड़ जाव फलदाण हेट्ठि समओत्ति ताव संतववएसं पड़िवज्जंति”, कषायपाहुड, पुस्तक संख्या १, पृ० २९१
४. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार ३, गाथा ३ (धण्णस्स संग्रहो वा संत)
५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३८
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