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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कारण, मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय जीवबन्ध या भाव बन्ध कहलाते हैं।'
स्कन्ध निर्माणके कारणभूत परमाणुओंका पारस्परिक बन्ध, अजीव बन्ध या पुद्गल बन्ध कहलाता है ।
जीवके प्रदेशोंके साथ कर्म प्रदेशोंका एकक्षेत्रावगाह हो जाना उभय बन्ध या द्रव्य बन्ध है । यद्यपि इनमें भावबन्ध ही प्रधान है, क्योंकि इसके बिना कर्मों का जीवके साथ बन्ध होना संभव नहीं है, परन्तु प्रस्तुत शोधमें कर्मको प्रधान मानकर बन्धका परिचय दिया जा रहा है, इस कारण यहां सर्वत्र द्रव्य बन्धको ही प्रधान मानकर प्रतिपादन करना इष्ट है । बन्धके कारण तथा उसके भेद प्रभेदोंका कथन अग्रिम अध्याय में किया जायेगा । यहाँ केवल दस करणके रूपमें बन्ध करणका सामान्य परिचय दिया गया है । (२) • उदयकरण
कर्मों के विपाक अर्थात् फलोन्मुख अवस्थाको “उदय" कहते हैं। पूर्व संचित कर्म जब अपना फल देता है, तो उस अवस्थाको जैन कर्मसिद्धान्तकी भाषामें उदय कहा गया है । जीवके पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म चित्तभूमि पर सदा अंकित रहते हैं। वे सब अपने-अपने समय पर परिपक्व दशाको प्राप्त होकर जीवको फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्मके उदयमें जीवके परिणाम उस कर्मप्रकृतिके अनुसार ही हो जाते हैं। कर्मोका यह उदय - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा रखकर ही होता है। यह उदय सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारका होता है। उदय क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त होने वाला "सविपाक उदय" कहलाता है। विपाक कालसे पहले ही तपादि विशिष्ट क्रियाओंके द्वारा कर्मों को फलोन्मुख अवस्थामें ले आना "अविपाक उदय कहलाता है । (जैसे आम कटहल आदिको क्रिया विशेषके द्वारा पका लेते हैं।)
कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा भी उदय “स्वमुखोदय और परमुखोदय" के १. यस्तु जीवस्यौपाधिक मोहरागद्वेषपर्यायरेकत्व परिणाम: स केवल जीवबन्धः” प्रवचनसार,
तत्त्वप्रदीपिका, पृ० १७७ २. दोतिण्णि - आदि पौम्गलाणजोसमवाओ सोपोग्गलबंधोणाम, षटखण्डागम, धवला टीका,१३/५,
पृ०३४७ ३. जीवकर्मोंभयोबन्ध: स्यान्मिथ: साभिलाषुकः ।
जीव कर्म निबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ।। पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक १०४ ४. उदयो विपाकः । सर्वार्थसिद्धिः, पृ० ३३२ ५. कम्मवसा खलु जीवा: । समणसुत्ते, गाथा ६१ ६. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १ गाथा ५१३ ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९९
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