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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
ऊर्ध्वगमन नहीं करता, फिर भी ऊर्ध्वगमन स्वभावी है । '
३.
जैन दर्शनमें योग
जीवकी उपरोक्त विशेषताओंके अतिरिक्त जैनदर्शनमें योग शब्दका भी प्रयोग हुआ है, परन्तु वह अन्य दर्शनोंके योगसे पृथक लक्षण वाला है । योग दर्शनमें योगका अर्थ चित्तवृत्ति निरोध कहा है, 'सांख्य और वेदान्त आदि दर्शनों में योग शब्दका अर्थ ध्यान समाधि आदिकी साधना के अर्थ में किया जाता है। जैन दर्शन में युज् धातुसे उत्पन्न योग शब्दका अर्थ चेतना की उस शक्ति विशेषसे है, जिसके द्वारा एक वस्तु दूसरी वस्तुके साथ अपना संबंध स्थापित कर लेती है । जीव में संकोच विस्तार रूप जो क्रियात्मक शक्ति पायी जाती है, उसे ही योग कहा जाता है ।"
जैन दर्शनके अनुसार जीवमें यह परिस्पन्दन अथवा क्रिया मन, वचन, काय के निमित्त से होती है, जैसाकि पूज्यपादजीका कथन है "योगोवाड्० मनसकायवर्गणा निमित्त आत्मप्रदेश परिस्पन्द: ५
जीव द्रव्यको अमूर्तिक कहा गया है, अमूर्तिक द्रव्योंमें परमाणुओंकी तरह विभाग नहीं किया जा सकता, परन्तु जैसे आकाशमें विभाग न होने पर भी घटाकाश, पटाकाश आदिके रूपमें व्यवहार किया जाता है, उसी प्रकार जीवके प्रदेशका विभाग संभव नही है, परन्तु मन, वचन और कायके रूपमें व्यवहार किया जाता है ।' नेमिचन्द्राचार्यने जीव प्रदेशोंके इस परिस्पन्दनको " द्रव्य योग” कहा है और उनमें रहने वाली शक्ति विशेषको भाव योग कहा है, जो कर्मों को ग्रहण करने में कारण होती है ।" समस्त व्यवहार द्रव्ययोगके द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि यह आत्माश्रित न होकर कार्मण शरीरके आश्रित होता है । '
चेतनाके आद्यस्पन्दनको ही वास्तवमें योग कहा जाता है, क्योंकि यह
१. राजवार्तिक, पृ० ६४५
२. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २५८
३. "युजेः समाधिवचनस्य योग: समाधिध्यानमित्यर्थ: " राजवार्तिक, पृ० ५०५
४. “जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोच विकोचव्भमणसरूवओ”
षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १०, भाग ४, पृ० ४३७ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १८३
६. द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा, २७
७. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २१६, पृ० ४७३ ८. " आत्माश्रितो निश्चयनय, पराश्रितो व्यवहारनय” कुन्दकुन्दाचार्य, समयसार, आत्मख्याति गाथा २७२ ९. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १०, भाग ४, पृ० ४३८
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