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जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें संबंध है, उसमें विभिन्नता पायी जाती है। कर्मों के धनीभूत आवरणसे जीवों में, चेतना कम विकसित होती है, और जिनके आवरण झीने पड़ते जाते हैं, ऐसे जीवोंमें चेतना का विकास भी बढ़ता जाता है । एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंमें चेतना सबसे कम विकसित होती है, यह विकास का अल्पतम रूप है । द्वीन्द्रियादिमें चेतनाका विकास क्रमश: उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। संसारी जीवोंमें सबसे अधिक विकसित चेतना, समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों में होती है।
हरेन्द्र सिन्हाने भी जैन मान्य जीवोंके वर्गीकरणमें चेतनाके विकासके उपरोक्त दृष्टिकोणको स्वीकार किया है ।। ७. जीव सिद्ध है -
सिद्धजीवोंका स्वरूप दर्शाते हुए नय चक्रमें कहा गया है - णट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणाणठा।
परम पहुत्तं पत्ता जे ते सिद्धा खलु मुक्का ।। जिन जीवोंने अपने अष्टकर्मों को नष्ट कर दिया है ऐसे शरीर रहित, अनन्त सुख और अनन्तज्ञानसे युक्त, परमप्रभुत्वको प्राप्त, मुक्त जीव ही सिद्ध होते हैं।
“जैनोंका सिद्धसंबंधी यह विचार चार्वाक् और मीमांसा मतका निराकरण करता है, क्योंकि चार्वाक् जीव मुक्ति को ही नहीं मानता और मीमांसा यद्यपि जीव मुक्तिको मानता है, परन्तु मुक्तिके समय रहने वाले ज्ञान और सुखको नहीं मानता । मीमांसाके अनुसार इस अवस्थामें आत्माके ज्ञान, सुख, दु:ख इत्यादि सब विशेष गुण लुप्त हो जाते हैं, यहाँ तक कि उस समय आत्मा की अपनी चेतना भी नहीं रहती। ८. जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है -
जीव स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है, जैसे अग्नि शिखा स्वभावसे ही ऊपरको जाती है, उसी तरह कर्मबन्ध से मुक्त जीव, स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है । मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन ही होता है, तिरछा आदि नहीं, परन्तु ऊर्ध्वगमन करते ही रहना जीवका स्वभाव नहीं है, जैसे अग्नि ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने पर भी सदैव ऊर्ध्वगमन नहीं करती। वैसे ही लक्ष्य प्राप्तिके बाद जीव भी १. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १४० २. नयचक्रवृहद्, गाथा १०७ ३. हिरियण्णा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ३३२ B. बंधेहि सव्वदो मुक्को, उड्ढं गच्छदि। पंचास्तिकाय, गाथा ७३
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