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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन न्यायवैशेषिकने द्रव्यके साथ गुणोंका अयुतसिद्धसंबंध माना है, जो वृक्ष की डाली तथा फूलपत्तोंके समान होता है । जैसे डाली और फूल पत्ते वृक्षके आश्रित रहते हुए भी उससे पृथक् हैं, उसी प्रकार न्यायवैशेषिकके गुण, द्रव्य पर आश्रित रहते हुए भी उससे बिल्कुल पृथक् माने जाते हैं। जैन मान्य गुण इसके विपरीत अपने द्रव्यसे तादात्म्य संबंध रखते हैं। जिस प्रकार अग्निकी उष्णता अग्निके आश्रित रहते हुए भी अग्नि से तादात्म्य संबंध रखती है, अग्निसे कभी भी पृथक् नहीं हो सकती, उसी प्रकार जैन मान्य गुण, तादात्म्य संबंधके कारण भूत, भविष्य और वर्तमान तीन कालमें भी द्रव्यसे पृथक् नहीं हो सकते । जैसे दाहकत्व, प्रकाशकत्व, उष्णत्व से पृथक् अग्नि स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वैसे ही जैन मान्य गुणोंसे पृथक् द्रव्य स्वतन्त्र नहीं है। ८. पर्याय.. गुणोंकी विभिन्न समयमें होने वाली अभिव्यक्ति ही पर्याय कहलाती है, अथवा गुणोंके विकारको पर्याय कहते हैं। देवसेनाचार्य ने पर्याय का व्युत्पत्यर्थ करते हुए कहा है- “याति पर्येति, परिणमति इति पर्याय द्रव्यको यद्यपि गुण और पर्यायोंका समूह कहा जाता है, परन्तु जैन मान्यता के अनुसार - गुण, द्रव्यके साथ प्रत्येक अवस्थामें तन्मय होकर रहते हैं और गुणोंकी अभिव्यक्ति करने वाला पर्याय क्रमपूर्वक ही द्रव्यके साथ रहता है, इसीलिये कहा गया है - “क्रमवर्तिन: पर्यायाः। क्रमवर्तीसे तात्पर्य है कि कालक्रमसे पर्यायोंकी अनन्त अवस्थायें बीत चुकी हैं और अनन्त भविष्यमें होंगी, परन्तु एक अवस्था वर्तमान कालमें रहती है।
सुखलालसंघवीने पर्यायका विवेचन करते हुए कहा है - द्रव्यमें परिणमन उत्पन्न करने की शक्तिको गुण कहते हैं और गुण से उत्पन्न परिणमन को पर्याय कहते हैं। इसप्रकार गुण कारण है और पर्याय कार्य है। द्रव्यत्व गुण केकारण वस्तु में सदा परिणमन रूप कार्य होता रहता है। परिणमन करते हुए भी ये पर्याय, द्रव्य से पृथक् नहीं होते, अपितु सागर की तरंगों की भाँति सदा वस्तुमें से उदित होकर उसीमें लीन होते रहते हैं, जैसा कि निम्न श्लोक में दर्शाया गया है१. हिरियण्णा एम. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २३१ २. जिनेन्द्र वर्णी, पदार्थ विज्ञान, १९८२, पृ० १७ ३.. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ०३५ ४. आलाप पद्धति, पृ०९२ ५. आलाप पद्धति, पृ०८७ ६. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ०१४२
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