________________
कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा
अनुप्रेक्षाओंका महत्त्व
मोक्षमार्ग में द्वादश अनुप्रेक्षाओंका अत्यधिक महत्त्व माना गया है । शुभचन्द्राचार्यने ज्ञानार्णवमें इस महत्त्वका प्रतिपादन करते हुए कहा है“विध्यांति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ” ”
अर्थात् इन द्वादश भावनाओंके निरन्तर अभ्याससे, पुरूषोंके हृदयमें उत्पन्न होने वाली कषायरूपी अग्नि नष्ट हो जाती है, रागभाव गलित हो जाता है, अज्ञानरूपी अन्धकार विलीन हो जाता है और ज्ञानका दीपक प्रकाशित हो जाता है । अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करता हुआ जीव उत्तमक्षमादि धर्म को भली प्रकारसे धारण करनेमें समर्थ होता है और आगे कहे जाने वाले परीषों को जीतने के लिए उत्साहित होता है । बारस अणुवेक्खा में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है
बारह भावनाओंके चिन्तनके फलस्वरूपही भूतकालमें पुरूषोंने सिद्धत्वको प्राप्त किया है और भविष्य कालमें भी प्राप्त करेंगे। आचार्य पद्मनन्दिने इन भावनाओंको कर्मक्षयका कारण बताते हुए कहा है
द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येव, कर्मणः क्षय कारणम् ॥
इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओंका निरन्तर गहन चिन्तन कर्मों के क्षयका कारण होता है, क्योंकि इससे कर्म प्रवाहमें वृद्धि करने वाली वृत्तियाँ रुक जाती हैं । इसीलिए इन्हें संवरका उपाय कहा गया है ।
परीषह जय
६.
(क) लक्षण
अंगीकृत धर्ममार्ग में स्थिर रहने के लिए और कर्मबन्धनके विनाशके लिए जो स्थितियाँ समभाव पूर्वक सहन करने योग्य हों, उनको परीषह कहते हैं । उमास्वामीने सूत्रमें परीषहकी यही परिभाषाकी है
१७३
१. ज्ञानार्णव, अधिकार १३, दोहा २
२. बारस अणुवेक्खा, गाथा ९०
३. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, अधकिार ६, श्लोक ४२
४. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ८
-
" मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा: "४ राजवार्तिककार अकलंक भट्टने परीषहका व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा है - " परिषद्यत इति
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org