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________________ १७२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन “सम्यग्ज्ञान पत्रिकामें कहा गया है कि मिथ्यात्वादि कारणोंसे नित्य कर्मों का आगमन होता रहता है ऐसा विचार कर व्यक्ति कमों के आनेके कारण को दूर करने और सम्यक्त्व आदिको ग्रहण करनेका प्रयास कर सकता है।' ८. संवरानुप्रेक्षा- मन, वचन, काय से दुर्वृत्तिके द्वारोंको बन्द करके शुभ प्रवृत्ति करना और संवरके गुणोंका चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। कर्मागम द्वार के बन्द होनेपर ही कर्ममुक्ति संभव है। ९. निर्जरानुप्रेक्षा- पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना अर्थात् क्षय होना निर्जरा है । कर्मबन्धनको नष्ट करनेके लिए सविपाक और अविपाक निर्जराका चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इसमें सहसा प्राप्त हुए कदुक विपार्कोका समाधान करना सविपाक निर्जरा है । तपध्यान द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करनेका चिन्तन अविपाक निर्जरा है। १०. लोकानुप्रेक्षा- यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक और तिर्यच गति, शुभ विचारोंसे देव और मनुष्य गति प्राप्त करता है । शुभ और अशुभ दोनों ही भावनायें चतुर्गतिमें भ्रमण कराने वाली हैं, केवल आत्म चिन्तन विषयक शुद्ध भावना ही पंचमगति मोक्षको देने वाली है, ऐसा जैनाचार्योंने माना है। लोक शिखर पर अर्घ चन्द्राकार स्थानको जैनोंने पंचमगति माना है, जहाँसे पुनरागमन नहीं होता। इस प्रकार तीनों लोकोंका चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है।' ११. बोधिदुर्लमत्वानुप्रेक्षा- मोक्षमार्गमें अप्रमत्तभाव पूर्वक साधना करने के लिए यह चिन्तन किया जाता है कि समस्त कर्मों का नाश करने वाला बोध अर्थात सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। निरन्तर उसकी प्राप्तिका उपाय करते रहना चाहिए। इस प्रकारका चिन्तन करना बोधि दुर्लभत्वानुप्रेक्षा है। १२. धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा- क्षमादि धर्मकी प्राप्ति न होनेसे जीव अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकारके अभ्युदयोंकी प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा है। १. सम्यग्ज्ञान, जनवरी १९८५, पृ० ११. २. बारस अणुवेक्खा , गाथा ६३ ३. वही, गाथा ६७ ४. वही,गाथा ४२ ५. बारस अणुवेक्खा , गाथा ८३ । ६. सर्वार्थसिद्धि. प०४१९ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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