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कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा
१७१ २. अशरणानुप्रेक्षा- संसारमें अपनी आत्माके अतिरिक्त, अन्य कोई भी शरण शाश्वत नहीं है। कर्मों को नष्ट करके जन्म, मृत्यु, भय, रोगादिसे यह आत्मा अपनी रक्षा स्वंय ही कर सकता है। इस प्रकार का चिन्तन करनेसे संसारकी सब वस्तुओं और संबंधियोंसे ममत्व दूर हो जाता है और आत्मामें प्रीति उत्पन्न होती है। ३. संसारानुप्रेक्षा- यह जीव जन्म, जरा, मरण, रोग और भय, इन पांच प्रकारके संसारमें अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है । यह पंचविध संसार हर्षविषाद, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंका स्थान है, ऐसा चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है
४. एकत्वानुप्रेक्षा- यह जीव अकेला हीशुभाशुभ कर्मों को बान्धताहै, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अपने कर्मों का फल भी जीव एकाकी ही भोगता है। इस प्रकारका चिन्तन करनेसे स्वजन विषयक राग और परजन विषयक द्वेष दूर हो जाता है। ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा- शरीर जड़, स्थूल और आदि अन्त युक्त है और आत्मा चेतन, सूक्ष्म और अनादि अनन्त है । बन्धकी अपेक्षासे दोनों एक प्रतीत होते हैं, परन्तु लक्षण भेदसे दोनों नितान्त पृथक् हैं । इस प्रकार शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है।' ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा- यह देह स्वयं अशुचि है और अशुचि पदार्थोसे ही इसका निर्माण हुआ है । स्नान, लेपन व सुगन्धित पदार्थों के द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर करना शक्य नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अशचित्वानप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तन करनेसे शरीरके श्रृंगार विषयक आसक्ति कम हो जाती है और शरीरसे ममत्व कम हो जाता है। ७. आसवानुप्रेक्षा- इन्द्रियभोगोंसे कर्मों का आसव होता रहता है । यह आसव ही संसार चक्रका कारण है, जब तक कर्मों का प्रवाह आसवित होता रहेगा, तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । आसवानुप्रेक्षाका महत्त्व बताते हुए १. बारस अणुवेक्खा , गाथा ११ २. वही, गाथा २४ ३. वही, गाथा १४ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४१५ ५. वही, पृ०४१६ ६. बारस अणुवेक्खा, गाथा ५९
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